भले ही दशरथ मांझी को अकेले ही पहाड़ काट कर सड़क बनानी पड़ी थी, पर उन्होंने ये साबित कर दिया की इंसान चाहे तो अपने हाथों से भी पहाड़ को काट सकता है। उन्हीं की राह पर चल पड़े हैं बिहार के कैमूर पहाड़ी पर बसे गांव के लोग।
कैमूर पहाड़ी पर बसे औरइयां,उरदगा, चपरा, कुशुम्हा व भड़कुड़ा सहित आधा दर्जन गांवों के गांव लगभग एक दशक तक दस्युओं की शरणस्थली और बाद में नक्सलियों का अभेद्य ठिकाना बने रहे। घोर असुविधा के बीच रह रहे यहां के वनवासी पीढ़ियों को एक अदद सड़क के अभाव में चार किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए 40 किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता था। सड़क बनाने की राह में वन्य जीव आश्रयणी के नाम पर वन विभाग बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा था। ग्रामीण, नेताओं व अधिकारियों के दरवाजे खटखटा कर थक चुके थे। सरकार व जनप्रतिनिधियों से गुहार लगाते-लगाते पीढ़ियां गुजर गईं। जब कहीं भी सुनवाई नहीं हुई तो इन गांवों के उत्साही युवाओं ने माउंटेन मैन दशरथ मांझी से प्रेरणा लेकर कुल्हाड़ी, कुदाल, छेनी, हथौड़ा सहित अन्य परंपरागत औजारों से चार किलोमीटर तक कैमूर पहाड़ी का सीना चीर सड़क बना डाला।
अब गांव से प्रखंड मुख्यालय की दूरी महज चार किलोमीटर ही तय करनी पड़ रही है। गांव में ट्रैक्टर, बाइक सहित अन्य गाड़ियां भी पहुंचने लगी हैं। ग्रामीणों का कहना है कि इससे न केवल बाजार की दूरी कम हुई है बल्कि बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के साथ सुशिक्षित समाज का निर्माण भी होगा।
समुद्र तल से डेढ़ हजार फीट ऊंचाई पर बसे इन गांवों के ग्रामीण कई किलो का बोझ सिर पर लेकर ऊबड़-खाबड़ पथरीली राह से गांव पहुंचते थे। रोगी को खाट पर नीचे लाना पड़ता था। ग्रामीण कहते है कि रास्ते के अभाव में युवक-युवतियों शादी भी नहीं हो पा रही थी। इलाज के अभाव में कई मरीजों की जान रास्ते में ही चली जाती है। अब रास्ता बनने के बाद इन मुसीबतों से छुटकारा मिलने की उम्मीद जग गई है।