एक बिहारी जिसके सामने नासा ने भी मान ली थी हार, कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी में किये उनके शोध से दुनिया में फैली उनकी प्रसिद्धि

एक बिहारी सब पर भारी बिहारी जुनून

दुनिया के महान वैज्ञानिकों में एक अल्बर्ट आइंस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती देने और अमेरिकी स्पेस एजेंसी “नासा” (नेशनल एयरोनॉटिकल एण्ड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) में काम करने वाले भारत के प्रसिद्ध साइंटिस्ट वशिष्ठ नारायण सिंह आज गुमनामी में जी रहे।

घर के एक कमरे में ही उनकी दुनिया सिमट गई है। घर आने वाले लोगों से बहुत कम बात करते हैं। किसी को पहचान भी नहीं पाते। परिवार के लोग दिनरात उनकी देखभाल में जुटे रहते हैं।

बिहार के भोजपुर जिले के बसंतपुर गांव के सामान्य परिवार में जन्मे वशिष्ठ नारायण सिंह ने देश विदेश में नाम कमाया, लेकिन मानसिक रोग सिजोफ्रेनिया से पीड़ित होने के बाद वह गुमनामी में जीने लगे।
वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म 2 अप्रैल 1942 को हुआ। सिंह ने 1962 बिहार में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। पटना साइंस कॉलेज में पढ़ते हुए उनकी मुलाकात अमेरिका से पटना आए प्रोफेसर कैली से हुई।
उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो कर प्रोफेसर कैली ने उन्हें बरकली आ कर शोध करने का निमंत्रण दिया था।
सिंह 1963 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में शोध के लिए गए। 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में पीएचडी प्राप्त की। उनके शोध कार्य ने उन्हें भारत और विश्व में प्रसिद्ध कर दिया। अपनी पढ़ाई खत्म करने के बाद कुछ समय के लिए भारत आए, लेकिन जल्द ही वे फिर अमेरिका वापस चले गए।
सिंह ने वाशिंगटन में गणित के प्रोफेसर के पद पर काम किया। 1971 में सिंह भारत वापस लौट गए। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर और भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, कोलकाता में काम किया। 1973 में उनका विवाह वंदना रानी के साथ हुआ।
सिंह को 1974 में मानसिक दौरे आने लगे। इसके बाद उनका इलाज रांची में हुआ। फिर वे लम्बे समय तक वे गायब हो गए और फिर एकाएक वे मिल गये।
1976 में वशिष्ठ नारायण को दिमागी बीमारी सिजोफ्रेनिया हो गई। जिससे इनकी जिंदगी में कई तरह की परेशानी आई।
बताया जाता है कि नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक था।
2013 में वशिष्ठ नारायण सिंह को भूपेंद्र नारायण मंडल यूनिवर्सिटी मधेपुरा में विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर आमंत्रित किया गया था।

अभी भी इनके कमरे किताबों से भरे पड़े हैं और दीवार पर गणित के कई फार्मूला लिखे हुए होते हैं। ये फिलहाल गुमनामी का जीवन जी रहे हैं।

2 अप्रैल को उनका जन्मदिन मनाया गया। इस मौके पर गांव के लोग जुटे और वशिष्ठ के नाम पर रक्तदान शिविर लगाया।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *