सासाराम की कहानी है सदियों पुरानी, मध्यकालीन भारत पर शासन करने वाले सूरी वंश के उठान की कहानी यहीं शुरू हुई थी..
यही वह जगह है, जहाँ से मध्यकालीन भारत पर शासन करने वाले सूरी वंश के उठान की कहानी शुरू हुई थी, लेकिन सासाराम के इतिहास की जड़े मध्यकाल तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि बहुत पुराना रहा है इसका इतिहास। यह शहर दुनिया के उन गिने चुने शहरों में से एक है, जिसकी पहाड़ी कन्दराओं में मध्यपाषाण कालीन आदि मानवों ने हजारो वर्षो तक निवास किया था।
ऐसे ही गुफाएँ है सासाराम के पूरब और दक्षिण स्थित पहाड़ियों में, जो लगभग अठारह हजार वर्ष पूर्व से चार हजार दो सौ वर्ष पूर्व तक मानव का अधिवास रही हैं।
नकटा जआफर बथान और गीता घाट की इन गुफाओं में हजारो वर्षो तक रहने के दौरान जब आदि मानवों में कला जाग्रत हुई तो इन गुफाओं की दीवालें कैनवास बन गयीं और उनपर मोटे ब्रशों से तरह-तरह के चित्र उकेरे जाने लगे। यहाँ की कन्दराओं में आदिमानव के अवशेष शैलचित्रों के रूप में आज भी मौजूद है।
आदिमानवों ने जब इन पहाड़ी गुफाओं से बाहर निकलकर लगभग चार हजार दो सौ वर्षो पूर्व मैदानी क्षेत्र में अपना डेरा डाला तो यहाँ नवपाषाणिक क्रांति की शुरुआत हुई। अब शिकार और संग्रहण के बदले खेती और पशुपालन मुख्य पेशे हो चुके थें।
यहीं पहाड़ी के आस-पास ही सासाराम के चातुर्दिक सोनवागढ़, कोटागढ़, भताढ़ी, सकास, मलाँव, सेनुवार आदि स्थानों पर हमारे आदिमानवों ने खेती और पशुपालन की शुरुआत की। वहाँ से पल्लवित-पुष्पित होकर संस्कृति निरंतर आगे बढ़ती रही।



आधार के ऊपर रौज़े का भव्य गुबंद बना है। इसके ऊपर कलश और अमालक तथा अष्टकोणीय आधार के कोनों पर छः स्तंभो पर बनी बुर्जियाँ मकबरे की खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है।अपने पिता के मकबरे की पूर्ण कराने के साथ ही शेरशाह ने अपने भी मकबरे की नींव सासाराम में ही डाली। बाइस एकड़ में फैले आयताकार तालाब के बीच स्थित इस रौजा का दुनिया में अपनी पहचान है। तालाब के पानी की स्वच्छ रखने के लिए इसके पश्चिम की ओर पानी के आगमन और निकास क्र लिए नहरे बनी है।मुख्य रौज़े तक जाने के लिए तालाब के उत्तर में स्थित दरबान के चौकोर मकबरे से होकर गुजरना पड़ता है।
इस मकबरे के बीच में दरबान की कब्र देखकर यह अंदाज लगाया जा सकता है की शेरशाह की अपने करिंदों से कितना प्रेम रहा होगा?दरबार के मकबरे और शेरशाह के रौज़े की तालाब के बीच तीन सौ फीट लंबी एक पुल नुमा सड़क जोड़ती है। पहले यहाँ दोनों मकबरों की जोड़ने के लिए उनके आधार की ऊचाई में पुल बना था, जो बाद में टूट गया था। अठारह सौ बयासी ई. में अंग्रेज सरकार द्वारा किये गए प्रथम जीर्णोंद्धार के समय यह सड़क बनी थी।
तालाब के बीच में तीस फीट ऊँचे चबूतरे पर अष्टपहलदार रौज़े का निर्माण हुआ है। मकबरा एक सौ पैंतीस फीट व्यास और डेढ़ फीट ऊँचे अष्टकोणीय आधार पर स्थित है। इसके ऊपर पहले हम दस फीट चौड़े और सोलह फीट ऊँचे बरामदे में पहुँचते है। इसके भीतर सोलह फीट मोटी दीवालों से घिरा इकहत्तर फीट व्यास का मकबरे का मुख्य कक्ष अलंकृत मिम्बर बना है।
मुख्य कक्ष के भीतर सूरी परिवार की पच्चीस कब्रे है। बादशाह शेरशाह का मज़ार मकबरे के ठीक बीच में है। बाइस मई पंद्रह सौ पैंतालीस को कालिंजर युद्ध में मृत्यु को प्राप्त होने को कुछ दिन तक महान बादशाह को यहाँ सुपुर्देख़ाक किया गया था। इस मकबरे के मिम्बर पर भी कलाम पाक की आयतें खुदीं है।
इसमें यह भी लिखा है कि बादशाह शेरशाह की मृत्यु के तीन माह बाद यह रौज़ा बादशाह इस्लामशाह के हाथों पूर्ण हुआ। बाहर चबूतरे से एक सौ बीस फीट ऊँचा और अस्सी फीट चौड़ा गुबंद सीना ताने खड़ा है। इसकी भव्यता देखते ही बनती है।
चबूतरे के चारो कोनों पर चार बड़ी अष्टकोणीय बुर्जियाँ तथा दूसरी और तीसरी मंजिल के आठों कोनो पर क्रमशः छोटी होती षट्कोण छतरियाँ पठान वस्तुकला के चरम उत्कर्ष को दर्शाती है।इसकी सुंदरता का बखान करते हुए अंग्रेज पुरविद् कनिंघम ने कहा था कि “शेरशाह का यह रौजा वास्तुकला की दृष्टि से ताजमहल की तुलना में अधिक सुन्दर है”।
इस मकबरे से भी सुन्दर रौजों को बनवाने का प्रयास सूरी वंश के अगले शासकों ने जारी रखा। इस्लामशाह ने अपने मकबरे के लिये न केवल और बड़े तालाब को खुदवाया बल्कि मकबरे का आधार भी बड़ा रखा। एक हजार दो सौ पचास फिट वर्गाकार तालाब के बीच तीन सौ पचास फीट वर्गाकार चबूतरे पर इस रौज़े की योजना बनी थी।
चबूतरे तक जाने के लिये पाँच सौ फीट लंबा तथा तीस फीट चौड़ा पुल बना है।
चबूतरे पर मकबरे की योजना सूरी वंश के अन्य मकबरों की तरह अष्ट पहलदार है। बादशाह इस्लामशाह के असामयिक निधन के कारण उनका यह मकबरा अर्धनिर्मित रह गया। बीच की कब्र उस महान् बादशाह इस्लामशाह की है, जिसके कारण सूरी वंश का सितारा बुलंद हुआ था।
इसी तरह सूरी वंश के अगले शासक मोहम्मद आदिल शाह ने भी उससे भी बड़े तालाब के अंदर अपने मकबरे को बनाने का सपना संजोया था। योजना स्थल के केवल दक्षिम-पूर्वी भाग में ही तालाब की खुदाई हो पायी थी और बीच चबूतरे का निर्माण जारी था।पंद्रह सौ सतहत्तर ईस्वी में सूरी सत्ता के पतन के कारण यह मकबरा भी अपना स्वरूप धारण न कर सका। आज यह जगह चंदा के नाम से प्रसिद्ध है।
सासाराम के दक्षिण में एक और भी मकबरा है। वह है सूरी वंश के वास्तुशिल्पी और पाँच सौ सवारों के सेनापति अलावाल खाँ का मकबरा। यह खुला मकबरा ऊँची चारदीवारी से घिरा है। मकबरा के पूर्वी दीवाल में बड़ा मेहराबदार दरवाजा है।
दरवाजे के भीतर एक सौ तीन फीट वर्गाकार आँगन है। आँगन के चारो कोनों पर वर्गाकार चार कक्ष बने है। इनमे उत्तरी-पूर्वी कक्ष दो मंजिला है। आँगन के बीच केवल तीन कब्रे है। पश्चिमी दीवाल में मेहराबदार अलंकृत मिम्बर से बना है।
सासाराम में चाहे हसन खाँ सूर का मकबरा हो या बादशाह शेरशाह सूरी का, इस्लामबाद सूरी का हो या मोहम्मद आदिल
शाह का या वास्तुशिल्पी अलावला खाँ का। ये पूर्ण या अर्धनिर्मित मकबरे सूरी वंश के उत्थान एवं पतन की कहानी स्वयं बयाँ करती है।
शहर सासाराम और सूरी वंश के सुनहरे काल खंड की निशानी ये मकबरे कितने सुरक्षित है? यह हमें और आपको देखना होगा।