पटना: समुद्र मंथन का ठीक-ठीक स्वरूप क्या रहा होगा, यह शोध का विषय है। लेकिन ऐसे प्रमाण मिले हैं कि सिमरिया धाम ही समुद्र मंथन की केन्द्रीय भूमि रही है। आध्यात्मिक रूप से जागृत सिमरिया धाम ही वह स्थान है, जहां मंथन से निकले अमृत का वितरण हुआ। मथनी बना मंदार पर्वत और रस्सी बने बासुकीनाथ धाम। ये दोनों ही स्थान सिमरिया धाम से कुछ ही दूरी पर हैं। दरअसल, कभी किसी ने इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया कि समुद्र मंथन जो हमारी संस्कृति परंपरा का सबसे वृहत संदर्भ है, उसका स्थान कहां था?
मिथिला, दरभंगा और काशी विश्वविद्यालयों तथा देशभर के अन्य विद्वानों की सभा, संगोष्ठियों, विद्वत परिषद की बैठक, प्रमाणों, लोकश्रुतियों और स्मृतियों के आधार पर अब यह प्रमाणित हो चुका है कि यही धाम समुद्र मंथन की केन्द्रीय भूमि रही। रुद्रयामल तंत्र, बाल्मीकि रामायण और अन्य में तो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मिथिलांचल ही समुद्र मंथन का केंद्र रहा।सिमरिया धाम को आदि कुंभस्थली के रूप में भी जाना जाता है। क्योंकि, प्रमाणों से यह बात सामने आयी है कि यही वह स्थान है, जहां मंथन के बाद निकले अमृत का वितरण हुआ।
इस रूप में माता जानकी की भूमि मिथिलांचल का यह हिस्सा आदि कुंभस्थली हुई। इसी सिमरिया धाम में वर्ष 2011 में शासम्मत विधि से अर्धकुम्भ का आयोजन हो चुका है। उसमें देशभर के करीब 90 लाख श्रद्धालुओं के साथ ही 13 अखाड़ों के साधु-संत शामिल हुए। यह भी सत्य है कि मां सीता की जन्मस्थली मिथिलांचल में एक नहीं तीन-तीन मंथन हुए। महान राजा नीमी के शरीर को मथा गया तो जनक का जन्म हुआ और मथने से नाम पड़ा मिथिलांचल। देवी भागवत के छठे स्कंद के 14वें अध्याय 35 में राजा नीमी के देह मंथन की चर्चा है। जिन षड्दर्शनों, सांख्य, योग, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक और वेदांत को हम भारतीय वांग्मय का आधार मानते हैं, उनमें से चार के चिंतक प्रवर्तक बिहार की इसी धरती से हुए।
इस तरह यह मंथन की भूमि भी रही। कुंभ और कल्पवास में शरीर-आत्मा का संबंध भारतीय संस्कृति के नीतिकारों ने समाज को धर्म व अध्यात्म की तरफ प्रेरित रखने के लिए अचूक व्यवस्थाएं दी थीं। हम नीति के मार्ग पर चलें, प्रकृति के निकट रहें, आपसी समन्वय होता रहे और समाज सशक्त बना रहे, पूरा विधना कुछ ऐसा था। हां, मूल निहितार्थ आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक उन्नति थी।