पेट की भूख और जिंदगी की जद्दोजहद में इंसान कुछ भी करता है। अगर आपको 1957 में बनी फिल्म मदर इंडिया याद हो, जिसे महबूब ख़ान द्वारा लिखा और निर्देशित किया गया है, तो उस फिल्म में एक मां के संघर्ष को जिस तरह से दिखाया गया वैसी ही जिंदगी और जीवन के संघर्ष को एक और कहानी दिखाती है वो है – किसान जवाहर राय की कहानी। लेकिन ये कहानी फिल्म की नहीं सच्चाई है।
मदर इंडिया की कहानी एक गरीबी से पीड़ित गांव में रहने वाली औरत राधा की कहानी थी जो कई मुश्किलों का सामना करते हुए अपने बच्चों का पालन पोषण करने और बुरे जागीरदार से बचने की मेहनत करती है। तो वहीं सारण जिले के किसान जवाहर राय गरीबी को झेलते हुए अपने बेटों को ही खेत में बैल बनाकर हल से खेत की जुताई करने को मजबूर हैं।
जवाहर बारिश की आस में बैठे थे और बारिश होते ही वो अपने खेत में मकई रोपने को परेशान हो जाते हैं। क्योंकि उनके पास खाने तक को पैसे नहीं तो बैल या ट्रैक्टर कहां से लाएंगे? उसके बाद बेटों ने परेशान पिता को देखा तो उन्होंने इसका हल निकाल लिया और कहा हम बैल बनेंगे। गरीबी से ग्रसित इस किसान की तस्वीर को देखकर आप भी सोचने को मजबूर हो सकते हैं।
बेटे बने बैल और पिता ने चलाया हल
बैल बने दोनों युवकों की मां और जवाहर राय की पत्नी लीलावती देवी ने कहा कि पैसे के अभाव में परिवार की परवरिश करने के लिए बेटों बैल की जगह लगाकर खेती करने की मजबूरी है। कोई अपने बच्चों से एेसा काम नहीं करा सकता। लेकिन, पेट की भूख एेसी ही होती है।
दरअसल, मुफस्सिल थानाक्षेत्र के मखदूमगंज गांव निवासी जवाहर राय पैसे के अभाव में अपने दो बेटों (अमर और रंजीत) के कंधे पर हल का पालो रखकर मकई की बुआई कर रहे थे और जवाहर की पत्नी उनके पीछे- पीछे मकई का बीज खेत में गिरा रही थी। ये देखकर लोगों को फिल्म मदर इंडिया की याद आ गई।
जब इस संबंध में किसान जवाहर राय से बात की तो बुजुर्ग दंपत्ति की आंखों से आंसू निकल आए। युवकों की मां लीलावती देवी ने कहा कि पैसे के अभाव में परिवार की परवरिश करने के लिए बेटों से हल चलाकर खेती करने की मजबूरी है। उन्होंने बताया कि बालू कारोबार चल रहा था तो वो लोग नाव पर काम कर अपनी रोजी-रोटी चलाते थे। लेकिन लंबे समय से बालू बंद होने के कारण उनका पूरा परिवार भूखमरी के कगार पर है।
जवाहर राय के पास लगभग 10 कट्ठे का खेत बचा हुआ है, जिसमें वह मकई बो रहे थे। गांव के लोगों से उन्होंने ट्रैक्टर मांगा लेकिन किसी ने नहीं दिया क्योंकि अभी सब लोग खुद की खेती करने में व्यस्त है। बारिश होता देख जवाहर राय के परिवार ने इस काम को खुद ही करने का निर्णय लिया और उनके दोनों बेटों ने बैल की जगह ले लिया और पिता ने हल संभाल लिया।