स्तीत्व की रक्षा करने का संदेश देती मां डुमरेजनी का मंदिर बक्सर नगर के दक्षिणी पूर्वी तरफ नदी के किनारे पर है। मान्यता है की सच्ची श्रद्धा के साथ मां के दरबार में आने वाले वाले भक्तों की सभी मनौतियां अवश्य पूरी होती है।
इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति नहीं बल्कि भस्म हुई माता की राख और मिट्टी का ढेर है। इसी मिट्टी के पिंडी की लोग पूजा करते हैं। कहा जाता है कि यदि कोई दिल से माता से कुछ मांगे, तो उसकी सभी मुरादें पूरी होती हैं। आज भी ये मंदिर घने पेड़ों से घिरा और आबादी से दूर है। फिर भी लोग यहां पूजा अर्चना के लिए रोज़ आते हैं।
प्रचलित कथा के अनुसार लगभग पांच सौ वर्ष पहले डुमरांव घने जंगलों से घिरा हुआ था और वहां सड़कें नहीं थी। रास्ता जंगलों के बीच और काव नदी से भोजपुर घाट होते हुए उतरप्रदेश को जोड़ता था। इस राह पर चेरो जाति का किला हुआ करता था। पेशे से लूटेरे चेरों का इस इलाके में आतंक था।
डुमरांव प्रखंड के अरैला गांव के कौशिक गोत्रीय ब्रह्मण परिवार में डुमरेजनी नाम की एक कन्या का जन्म हुआ। बड़ी होने पर उसकी शादी आज के उत्तर प्रदेश इलाके के द्रोणवार ब्रह्मण रामचंद्र पांडेय से हुई। बिदाई कराकर रामचंद्र डुमरेजनी की डोली के आगे घोड़े पर इसी रास्ते से गुजर रहे थे। जैसे ही चेरो के इलाके में पहुंचे तो चेरों ने लूट की नीयत से हमला कर दिया। चंडी का रुप धारण कर पति के साथ डुमरेजनी भी चेरों से भिड़ गईं। पति के गिरते ही डुमरेजनी भी हिम्मत हारने लगीं और अपनी स्तीत्व की रक्षा के लिए अपने आप को भस्म कर लिया। नारी शक्ति का यह रुप लोगों के बीच आज भी चर्चा का केंद्र बना हुआ है।
कहते हैं की उस हादसे के कुछ समय बाद माता का प्रभाव इलाके में दिखने लगा। माता की कुदृष्टि के कारण चेरो का सम्राज्य समाप्त हो गया। 19वीं सदी के उतराद्ध में दक्षिण टोला के लोगों के प्रयत्न से डुमरेजनी माँ का छोटा सा मंदिर बनाकर पूजा अर्चना आरम्भ हुई। लोगों का मंदिर में आना जाना शुरू हुआ तो माता के प्रति उनकी आस्था बढ़ती गई। माता की कृपा से रीवा नरेश रमण सिंह को पुत्र रत्न की प्राप्त होने पर 1898 में महारानी ने भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। उसके बाद से आस्था का जन सैलाब आज भी जारी है। मंदिर के पुजारी वीरेन्द्र मिश्रा ने बताया कि नियमित रूप से मंदिर में सुबह सात बजे और संध्या साढ़े छह बजे आरती की जाती है।
आरती के बाद मंदिर में ताला बंद नहीं होता है। भक्तों का कहना है कि माता सबकी दुख हरती है और यहां से खाली हाथ कोई नहीं लौटता। वक्त के साथ चेरों का आतंक तो समाप्त हो गया पर उनके किले का अवशेष आज भी मंदिर के समीप है। अब पहले की तरह घने जंगल नहीं है पर घने पेड़ों के कारण जंगल होने का अहसास होता है। मंदिर के पूरब से काव नदी गुजरती है। प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा के दिन यहां विशेष पूजा होती है। इस पूजा में दूर राज्यों से भी भक्त आते हैं।