बिहार के सबसे बड़े जिले पश्चिम चम्पारण में आजकल मेले का माहौल है. यहां का फैंसी मेला नवरात्रि की सप्तमी से शुरू होकर डेढ़ माह तक चलता है. खास बात यह है कि मेले में देश के अलग-अलग राज्यों से व्यापारी आए हुए हैं. इनमें जिले के वाल्मिकी टाइगर रिजर्व के क्षेत्र की आदिवासी महिलाएं भी हाथों से बनाए गए गर्म कपड़े जैसे स्वेटर, शॉल, टोपी, जैकेट, बंडी आदि लेकर आई हैं. इन कपड़ों में आदिवासी परंपरा की झलक स्पष्ट रूप से मिलती है.
हर दिन हो रही 10 हजार की बिक्री
बता दें कि मेले में बिकने वाली थरुहट की चीजों का निर्माण हरनाटांड़ स्थित हस्थकर्घा में पारंपरिक तरीकों से की जाती है. कभी राज्य के 7 जिलों में चलने वाला हथकरघा आज सिर्फ पश्चिम चंपारण जिले तक ही सीमित रह गया है. यहां आज भी लकड़ियों के फ्रेम पर हाथों से ही गर्म कपड़े, चादर, टोपी, जैकेट और गमछे बनाए जाते हैं. खास बात यह है कि यहां की आदिवासी महिलाएं इस कार्य में निपुण हैं. स्टॉल के सेल्स मैनेजर शिवजी मिश्र ने बताया कि आज भी लोगों में हाथ से बने पोशाकों का क्रेज है. मेले में वे हर दिन 9 से 10 हजार रुपए के समान की बिक्री कर ले रहे हैं.
60 महिलाएं हर दिन करती हैं 150 शॉल का निर्माण
हरनाटांड़ जंगल के करीब रहने वाली लक्ष्मी ने बताया कि आज हथकरघा भले ही समाप्ति की कगार पर है, लेकिन यहां बनाई जाने वाली वस्तुओं की मांग बड़े पैमाने पर होती है. एक महिला हर दिन करीब 5 शॉल बना लेती है. यहां का काम 12 महीने चलता रहता है. हथकरघामें कुल 40 लकड़ी के फ्रेम हैं, जिसपर 60 महिला कारीगर काम करती हैं.
ऐसे में एक दिन में तकरीबन 150 शॉल सहित अन्य कई चीजें तैयार की जाती है. हथकरघा केप्रोपराइटर हरेंद्र ने बताया कि अगर अप्रैल से लेकर अक्टूबर तक की बात की जाए, तो इन 6 महीनों में 25 हजार शॉल, 27 हजार बेड शीट, 5 हजार मफलर-स्वेटर और 23 हजार गमछे तैयार किए जाते हैं. जहां तक बात बिक्री की है, तो इसे राज्य के कुछ खास जिलों जैसे पटना, सीवान, पूर्वी चंपारण और पश्चिम चम्पारण में बेचा जाता है.