लालू-मुलायम की आपसी लड़ाई में देवेगौड़ा को मिली ‘सत्ता की चाबी’, दिलचस्प है 1996 की संयुक्त मोर्चा की कहानी

राजनीति

कर्नाटक का नाटक समाप्त हो चुका है, लेकिन किंगमेकर की भूमिका अदा करने की उम्मीद थामे हुए जेडीएस को सबसे बड़ा झटका लगा है और उसका सपना चकनाचूर हो गया। दरअसल, कुछ वक्त पहले पूर्व प्रधानमंत्री और जेडीएस के वरिष्ठ नेता एचडी देवेगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे थे, लेकिन कर्नाटक के चुनावी परिणाम से उन्हें गहरा धक्का लगा है, क्योंकि पार्टी के हिस्से में 20 सीटें भी नहीं आई हैं।

बेटे का बेहतर चाहते थे देवेगौड़ा

यह किसी से नहीं छिपा है कि देवेगौड़ा अपने बेटे को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं। समाजवादी नेता देवेगौड़ा ने जेडीएस में सिद्धारमैया के बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया था और यह बात किसी से नहीं छिपी थी कि आगे चलकर वो कुमारस्वामी के लिए चुनौती बन जाते। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सिद्धारमैया पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने 5 साल की सरकार पूरी की थी।

किसी भी दल को नहीं मिला था बहुमत

आपको बता दें कि साल 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की 13 दिनों की सरकार के बाद देवेगौड़ा ने सत्ता संभाली थी। उस वक्त किसी भी पार्टी के पास बहुमत नहीं था, ऐसे में संयुक्त मोर्चा के उम्मीदवार देवेगौड़ा ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। दरअसल, 11वीं लोकसभा में कांग्रेस को करारा झटका लगा था। उस वक्त कांग्रेस के खातें में 141 सीटें आईं, जबकि भाजपा ने 161 सीटों पर कब्जा किया था।

ऐसे बने थे देवेगौड़ा प्रधानमंत्री

बात 1996 की, जब 11वीं लोकसभा के चुनावी परिणाम सामने आए तो किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था। ऐसी स्थिति में सवाल उठने लगे कि हिंदुस्तान की सत्ता में आखिर कौन काबिज होगा ? उस वक्त राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने भाजपा को सरकार बनाने का न्यौता दिया, क्योंकि चुनावी परिणाम में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार बना ली, लेकिन 13 दिनों में ही अटल सरकार गिर गई।

इसके बाद एक बार फिर से जनता दल एक्टिव हुई और सरकार बनाने का फॉर्मूला तय करने लगी। उस वक्त माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने जनता दल सहित बाकी दलों एकजुट करना शुरू किया और संयुक्त मोर्चा बनाया। संयुक्त मोर्चा बनने के साथ ही प्रधानमंत्री चुनने की कवायद शुरू हो गई। वीपी सिंह का नाम सामने आया, लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से साफ इनकार कर दिया। ऐसे में उन्हीं को कहा गया कि प्रधानमंत्री पद के लिए नाम सुझाएं, तब उन्होंने ज्योति बसु का नाम सुझाया था।

इसी के साथ ही ज्योति बसु के नाम पर आपसी सहमति बन गई और अगले दिन अखबार में खबर भी लीक हो गई कि ज्योति बसु अगले प्रधानमंत्री होंगे। हालांकि, माकपा ने सेंट्रल कमेटी की बैठक बुलाकर ज्योति बसु के नाम को ठुकरा दिया और इसी के साथ नए नाम पर विचार-विमर्श शुरू हो गया।

ज्योति बसु ने सुझाया था देवेगौड़ा का नाम

हरकिशन सिंह सुरजीत ने एक बार फिर से संयुक्त मोर्चा की बैठक बुलाई और अंतत: देवेगौड़ा के नाम पर सहमति बनी। दरअसल, प्रधानमंत्री न बन पाने वाले ज्योति बसु ने ही देवेगौड़ा का नाम सुझाया था। इसके बाद संयुक्त मोर्चा ने देवेगौड़ा को दल का नेता चुन लिया और राष्ट्रपति को इसकी जानकारी देने पहुंचे, लेकिन संयुक्त मोर्चा की तरफ से देरी को देखते हुए राष्ट्रपति ने भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दे दिया। भाजपा ने सरकार बना भी ली, लेकिन यह सरकार महज 13 दिनों की ही रही और फिर देवेगौड़ा ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी।

लालू-मुलायम की तकरार का मिला फायदा

समय का पहिया अगर पीछे घुमाया जाए तो देवेगौड़ा को लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव के बीच चल रही तकरार का भी फायदा मिला। दरअसल, प्रधानमंत्री पद के लिए दोनों समाजवादी नेताओं (लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव) का नाम आगे चल रहा था, लेकिन चारा घोटाला के चलते लालू प्रसाद यादव रेस से बाहर हो गए। ऐसे में मुलायम सिंह यादव के नाम पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया गया।कहा तो यहां तक जाता है कि शपथ ग्रहण समारोह की तैयारियां भी शुरू कर दी गई थीं, लेकिन लालू प्रसाद यादव और शरद पवार नहीं माने। जिसकी वजह से मुलायम सिंह यादव का नाम ठंडे बस्ते में चला गया और देवेगौड़ा ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *