भवानी और शंकर की हम वंदना करते हैं। श्रद्धा का नाम पार्वती और विश्वास का शंकर है। श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक विग्रह मूर्ति हम मंदिरों में स्थापित करते हैं। इनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाते हैं। उन पर जल व बिल्व पत्र चढ़ाते हैं। उनकी आरती करते हैं। लेकिन इसके लिए श्रद्धा और विश्वास का होना अत्यावश्यक है। इसके बिना कोई सिद्धपुरुष भी भगवान को प्राप्त नहीं कर सकता।
देवाधिदेव का सही स्वरूप समझना है जरूरी
देवाधिदेव का सही स्वरूप समझने के बाद ही हम उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। पंडित महेश झा और पंडित कैलाश मिश्र के अनुसार, शिव पुराण एवं लिंग पुराण में शिव के तत्व को समझ लेने के बाद उस विधि व उस तत्व से जब साधक उनकी पूजा और उपासना करता है, तो भोलेनाथ अति प्रसन्न होते हैं और मनोवांछित आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
शिव लिंग
यह सारा विश्व ही लिंग मय है। शिव का आकार लिंग स्वरूप माना जाता है। उसकी सृष्टि साकार होते हुए भी आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
नंदी
शिव का वाहन वृषभ शक्ति का पुंज है। वह हिम्मत का प्रतीक है।
चांद
शांति व संतुलन का प्रतीक है। चंद्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है। वह पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है।
गंगा की जलधारा
सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञानगंगा से है। गंगा यहां ज्ञान की प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती हैं। महान आध्यात्मिक शक्ति को संभालने के लिए शिवत्व ही उपयुक्त है। मां गंगा उसकी ही जटाओं में आश्रय लेती हैं। अज्ञान से भरे लोगों को जीवनदान मिल सके। शिव जैसा संकल्प शक्ति वाला महापुरुष ही उसे धारण कर सकता है।
तीसरा नेत्र
ज्ञानचक्षु जिससे कामदेव जलकर भस्म हो गया। यह तृतीय नेत्र स्रष्टा ने प्रत्येक मनुष्य को दिया है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत रहता है। पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि काम वासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है।
गले में सांप
शंकर भगवान ने गले में पड़े हुए काले विषधर का इस्तेमाल इस तरीके से किया है कि उनके लिए वे फायदेमंंद हो गए।
नीलकंठ
शिव ने उस हलाहल विष को अपने गले में धारण कर लिया, न उगला और न पीया। अर्थात विषाक्तता को न तो आत्मसात करें, न ही विक्षोभ उत्पन्न कर उसे उगलें। उसे कंठ तक ही प्रतिबंधित रखें।
मुण्डों की माला
जीवन की अंतिम परिणति और सौगात राजा व रंक समानता से इस शरीर को छोड़ते हैं। वे सभी एकसूत्र में पिरो दिए जाते हैं। यही समत्व योग है।
डमरू
शिव डमरू बजाते और मौज आने पर नृत्य भी करते हैं। यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है। उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है।
त्रिशूल
लोभ, मोह, अहंता के तीनों भवबंधन को ही नष्ट करने वाला यह शस्त्र त्रिशूल रूप में धारण किया गया- ज्ञान, कर्म और भक्ति की पैनी धाराओं का है।
बाघम्बर
शिव बाघ का चर्म धारण करते हैं। जीवन में बाघ जैसे ही साहस और पौरुष की आवश्यकता है जिसमें अनर्थों और अनिष्टों से जूझा जा सके।
भस्म
शिव भस्म को शरीर पर मल लेते हैं ताकि ऋतुओं के प्रभावों का असर न पड़े।
मरघट में वास
उन्हें श्मशानवासी कहा जाता है। हर व्यक्ति में मरण के रूप में शिवसत्ता का ज्ञान बना रहे इसलिए उन्होंने अपना डेरा श्मशान में डाला है।
हिमालय में वास
जीवन के कष्ट कठिनाइयों से जूझ कर शिवतत्व सफलताओं की ऊंचाइयों को प्राप्त करता है।
शिव -गृहस्थ योगी
गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिव जी के जीवन की महत्वपूर्ण घटना है। सांसारिक व्यवस्था को चलाते हुए भी वे योगी रहते हैं, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं।
शिव परिवार
शिवजी के परिवार में सभी अपने-अपने व्यक्तित्व के धनी तथा स्वतंत्र रूप से उपयोगी हैं। पत्नी पार्वती, पुत्र देव सेनापति कार्तिकेय तथा कनिष्ठ पुत्र प्रथम पूज्य गणपति हैं। सभी विभिन्न होते हुए भी एक साथ हैं। बैल, सिंह, सर्प, मोर प्रकृति में दुश्मन दिखाई देते हैं, किन्तु शिवत्व के परिवार में ये एक-दूसरे के साथ हैं। शिव के भक्त को शिव परिवार जैसा श्रेष्ठ संस्कार युक्त परिवार निर्माण के लिए तत्पर होना चाहिए।
बिल्वपत्र
बिल्वपत्र को जल के साथ पीसकर छानकर पीने से बहुत दिनों तक मनुष्य बिना अन्न के जीवित रह सकता है। शरीर की इन्द्रियां एवं चंचल मन की वृतियां एकाग्र होती हैं तथा गूढ़ तत्व विचार शक्ति जाग्रत होती है। अत: शिवतत्व की प्राप्ति हेतु बिल्वपत्र स्वीकार किया जाता है।
शिव-मंत्र
ऊॅ नम: शिवाय। शिव का अर्थ है कल्याण। कल्याण की दृष्टि रखकर हमको कदम उठाने चाहिए और हर क्रिया- कलाप एवं सोचने के तरीके का निर्माण करना चाहिए। समस्त भूतों का अस्तित्व मिटाकर परमात्मा से अल्प- समाधान की साधना ही शिव की साधना है।