मछलियां तो आपने खूब देखी होंगी. लेकिन क्या आप जानते हैं कि बाजार से जिन मछलियों को आप खरीदते हैं, उन्हें पकड़ने में मछुआरे को कितनी मशक्कत करनी पड़ती है. कैसे-कैसे जाल बिछाने पड़ते हैं. तो चलिए आज हम आपको बताते हैं ऐसे ही एक विशेष जाल के बारे में और बात करेंगे उन कारीगरों से जो ऐसा नायाब जाल बनाते और बिछाते हैं.
दरअसल, जिले के कोटवा प्रखंड के गोपी छपरा पंचायत के सागर चुरामन गांव के रहने वाले राजदेव सहनी, सकिन्द्र साहनी और उनके साथी जाल बनाते हैं. बता दें कि जाल भी कई तरह के होते हैं, जिसे इसकी उपयोगिता के आधार पर ढेसी, घाना, टोहका, सरईला, दोआरी, एकारी आदि नाम से जाना जाता है. वहीं आम बोलचाल की भाषा में इसे पिंजरा भी कहते हैं.
एक बांस से एक पिंजरा
उन्होंने बताया कि एक पिंजरा बनाने में पूरा एक बांस लग जाता है. इसके लिए कच्चे हरे बांस काटकर उससे पतली-पतली एवं लम्बी तीलियां (कमानी/करची) निकालते हैं. इस काम को चार मजदूर मिलकर पूरे दिन में करते हैं. इसके बाद इन तीलियों को आग में सेंका जाता है. इससे तीलियों की नमी निकल जाती है. तीलियों में ताजगी आ जाती है. कच्ची रहने पर जल्दी सड़ने का डर बना रहता है. वे बताते हैं कि इस तरह का पिंजरा तैयार कर पास के ही मउराहां चंवर में मछलियों का शिकार करते हैं
अलग-अलग पिंजरा
सकिंद्र ने बताया कि अलग-अलग साइज की मछलियों को पकड़ने के लिए अलग-अलग पिंजरा बनाना पड़ता है. रोहू, नैनी, बरारी, सॉरी जैसी बड़ी मछलियों को पकड़ने के लिए ढेसी, झींगा आदि छोटी मछली के लिए घाना, गरई, सिंघी जैसी मछलियों के लिए टोहका, पोटेया, गईची, बामी के लिए सरईल, जबकि एकारी और दोआरी में पटेया आदि मछली फंसाते हैं. उन्होंने बताया कि ये सभी जाल पहले जंगल की लताओं से बुने जाते थे. लेकिन अब प्लास्टिक की रस्सियों से भी बुने जा रहे हैं. यह एक ही सीजन चलता है.