जनगणना या सर्वे? नीतीश सरकार के कास्ट सेंसस पर अदालत में क्यों और कैसे फंस गया पेंच

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बिहार की नीतीश सरकार को जातिगत सर्वे पर सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिली है. नीतीश सरकार ने जातिगत सर्वे पर रोक लगाने के पटना हाई कोर्ट के अंतरिम आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाई कोर्ट के अंतरिम आदेश में दखल देने से इनकार कर दिया. पटना हाई कोर्ट ने बीती 4 मई को जातिगत सर्वे पर अंतरिम रोक लगा दी थी.

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एएस ओक और जस्टिस राजेश बिंदल की बेंच ने कहा कि पटना हाई कोर्ट में इस मामले की तीन जुलाई को सुनवाई होनी है, इसलिए इस पर हम 14 जुलाई को सुनवाई करेंगे.

जातिगत सर्वे… क्या?

– बिहार सरकार 18 फरवरी 2019 और फिर 27 फरवरी 2020 को जातिगत सर्वे का प्रस्ताव विधानसभा और विधान परिषद से पास करा चुकी है.

बिहार में जातिगत सर्वे दो चरणों में होना था. पहला चरण 7 जनवरी से 21 जनवरी के बीच पूरा हो चुका है. दूसरा चरण 15 अप्रैल से 15 मई के बीच होना था.

– राज्य सरकार ने अदालत में बताया कि कुछ जिलों में जातिगत सर्वे का 80 फीसदी काम पूरा हो चुका है और 10 फीसदी से भी कम काम बाकी है.

– नीतीश सरकार ने जातिगत सर्वे के लिए 500 करोड़ रुपये का खर्च होने का अनुमान लगाया है. ये काम मई 2023 तक पूरा होने की उम्मीद थी.

पर रोक क्यों लगी?

– कुछ सामाजिक संस्थाओं और लोगों ने बिहार सरकार के इस जातिगत सर्वे के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की थीं.

– हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका कर्ताओं को हाई कोर्ट जाने को कहा था. साथ ही ये भी आदेश दिया था कि इस मामले पर जल्द फैसला लिया जाए.

– इन्हीं याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए पटना हाई कोर्ट ने 4 मई को जातिगत सर्वे पर अंतरिम रोक लगा दी थी.

– जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस मधुरेश

प्रसाद की बेंच ने अपने आदेश में बिहार सरकार के जातिगत सर्वे को ‘असंवैधानिक’ बताया था.

– बेंच ने कहा था, सरकार किसी और नाम से जनगणना करवा रही है, जो असंवैधानिक है. राज्य सरकार को बिहार में इस तरह की जातिगत जनगणना करने का कोई अधिकार नहीं है

. – बेंच ने ये भी कहा कि जातिगत सर्वे का डेटा राजनीतिक पार्टियों से साझा करने का इरादा लोगों की निजता के अधिकार के उल्लंघन का बड़ा सवाल खड़ा करता है. येअखंडता और सुरक्षा का सवाल भी है. h

सुप्रीम कोर्ट से क्यों नहीं मिली राहत?

– पटना हाई कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई की अगली तारीख तीन जुलाई तय की थी. हाई कोर्ट ने ये भी कहा था कि अब तक जो भी आंकड़े जुटाए गए हैं, उन्हें सुरक्षित रखा जाएगा.

– हालांकि, बिहार सरकार ने हाई  कोर्ट से मामले पर जल्द सुनवाई करने की अपील की थी, जिसे खारिज कर दिया गया था.

– इसे लेकर राज्य राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था. बिहार सरकार का कहना था कि अगर इस पर रोक लगाई जाती है तो इससे ‘भारी नुकसान’ होगा.

– बिहार सरकार की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देखना होगा कि सर्वे के नाम पर जनगणना तो नहीं कराई जा रही?

– बेंच ने कहा कि सबसे पहले तो हमें ये तय करना है कि ये सर्वे है या जनगणना? बहुत सारे दस्तावेज दिखाते हैं कि ये कवायद केवल जनगणना है.

– सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि ये ऐसा मामला नहीं है जिसमें हम आपको अंतरिम राहत दे सकते हैं. कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट में सुनवाई हो जाने दीजिए, उसके

बाद 14 जुलाई को हम सुनवाई करेंगे.

बिहार सरकार के क्या हैं तर्क?

बिहार सरकार ने इसे पूरी तरह से सर्वे बताया है. हाई कोर्ट में राज्य सरकार की ओर से पेश हुए सीनियर एडवोकेट श्याम दीवान ने कहा था कि पूरी एक्सरसाइज

जनगणना नहीं, बल्कि सर्वे है.

– दोनों में अंतर समझाते हुए दीवान ने कहा था, सर्वे एक निश्चित क्वालिटी का होता है और कुछ समय के लिए होता है. जबकि, जनगणना में आपको सवालों के जवाब देने होते हैं.

उन्होंने तर्क दिया था कि नीतियां बनाने के लिए इस डेटा की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी ऐसा कहते हैं.

– वहीं, डेटा प्राइवेसी पर दीवान ने कहा जाती है.

कि इस सर्वे का सारा डेटा बिहार सरकार के सर्वर पर स्टोर किया जाएगा. ये फुलप्रूफ सिस्टम है.

– दीवान ने इस सर्वे को अनुच्छेद 15 और 16 के तहत संवैधानिक अनुच्छेद 15 कहता है कि जाति, धर्म, रंग, नस्ल, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जाएगा. जबकि, अनुच्छेद 16 कहता है कि रोजगार और नियुक्ति के मामलों में सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार किया जाएगा.

क्या बिहार सरकार नहीं करवा सकती ऐसा?

– बिहार सरकार इसे ‘जनगणना’ की बजाय ‘सर्वे’ बता रही है. सरकार का कहना है कि नीतियां बनाने के लिए जातियों के आंकड़े जुटाना जरूरी है.

– हालांकि, अदालत इसे ‘सर्वे’ नहीं, बल्कि ‘जनगणना’ मान रही है. हाईकोर्ट का कहना है कि राज्य सरकार सर्वे की आड़ में जातिगत जनगणना करवाने की कोशिश कर रही है, खासकर तब जब उसके पास ऐसा करने की कोई विधायी शक्ति नहीं है.

– कोर्ट ने ‘जनगणना’ और ‘सर्वे’ में अंतर बताते हुए कहा था कि जनगणना सटीक फैक्ट्स और वेरिफाई डिटेल पर आधारित होती है, जबकि सर्वे में आम लोगों से राय ली जाती है.

संविधान क्या कहता है?

– जनगणना करवाने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है. जनणना का विषय संविधान की सातवीं अनुसूची की लिस्ट-1 में आता है.

– इतना ही नहीं,1948 का जनगणना एक्ट भी यही कहता है कि इससे जुड़े नियम बनाने, जनगणना कर्मचारी नियुक्त करने और जनगणना की जानकारी इकट्ठा करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है.

दरअसल, संविधान में संघ, राज्य और समवर्ती सूची है. इसमें बताया गया है कि केंद्र और राज्य सरकार के अधिकार में कौन-कौन से विषय आते हैं.

सातवीं अनुसूची में इस बारे में बताया गया है.

– संघ सूची में उन विषयों को शामिल किया गया है जिनमें कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद को है. इसमें रक्षा, विदेश मामले, जनगणना, रेल जैसे 100 विषय शामिल हैं.

— राज्य सूची में शामिल विषयों पर कानून बनाने का अधिकार सिर्फ राज्य सरकार को है. इसमें कोर्ट, पुलिस, स्वास्थ्य, वन, सड़क, पंचायती राज जैसे 61 विषय हैं.

– वहीं, समवर्ती सूची में उन विषयों को शामिल किया गया है जिन पर केंद्र और राज्य, दोनों कानून बना सकतीं हैं. अगर केंद्र किसी विषय पर कानून बना लेता है तो राज्य को उसे मानना होगा. इसमें शिक्षा, बिजली, जनसंख्या नियंत्रण, कारखाने जैसे 52 विषय आते हैं.

आखिर में बात, क्यों नहीं होती जातियों की गिनती? 

– 1881 में देश में पहली बार जनगणना हुई थी. तब से ही हर 10 साल में जनगणना होती है. 1931 में आखिरी बार जातिगत जनगणना हुई थी.

– आजादी के बाद से देश में सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की ही गिनती होती है. अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी की जातियों को नहीं गिना जाता.

– 2011 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम यादव ने जातिगत जनगणना की मांग उठाई थी. इसके बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना करवाने का

का फैसला लिया था.

– 2016 में मोदी सरकार ने जातियों को छोड़कर बाकी सारा डेटा सार्वजनिक कर दिया था केंद्र का कहना था कि 2011 में जो सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना हुई थी, उसमें कई खामियां थीं.

— 2021 में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में बताया था कि 1931 में जब जातिगत जनगणना हुई थी, तब जातियों की संख्या 4,147 थी. लेकिन 2011 में जातियों की संख्या बढ़कर 46 लाख से भी ज्यादा हो गई थी.

 

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