देश के रजवाड़ों में दरभंगा राज का अपना खास ही स्थान रहा है। दरभंगा राज बिहार के मिथिला क्षेत्र में लगभग 6,200 किलोमीटर के दायरे में था। इसका मुख्यालय दरभंगा शहर था। इस राज की स्थापना मैथिल ब्राह्मण जमींदारों ने 16वीं सदी की शुरुआत में की थी।
ब्रिटिश राज के दौरान तत्कालीन बंगाल के 18 सर्किल के 4,495 गांव दरभंगा नरेश के शासन में थे। राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल थे। दरभंगा नरेश कामेश्वर सिंह अपनी शान-शौकत के लिए पूरी दुनिया में विख्यात थे। अंग्रेज शासकों ने इन्हें महाराजाधिराज की उपाधि दी थी।
राज दरभंगा ने नए जमाने के रंग को भांप कर कई कंपनियों की शुरुआत की थी। नील के व्यवसाय के अलावा महाराजाधिराज ने सुगर मिल, पेपर मिल आदि खोले। इससे बहुतों को रोजगार मिला और राज सिर्फ किसानों से खिराज की वसूली पर ही आधारित नहीं रहा। आय के नये स्रोत बने।
इससे स्पष्ट होता है कि दरभंगा नरेश आधुनिक सोच के व्यक्ति थे. पत्रकारिता के क्षेत्र में दरभंगा महाराज ने महत्त्वपूर्ण काम किया। उन्होंने न्यूजपेपर एंड पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना की और कई अखबार व पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया।
अंग्रेजी में ‘द इंडियन नेशन’, हिंदी में ‘आर्यावर्त’ और मैथिली में ‘मिथिला मिहिर’ साप्ताहिक मैगजीन का प्रकाशन किया। एक जमाना था जब बिहार में आर्यावर्त सबसे लोकप्रिय अखबार था। ‘मिथिला मिहिर’ का मैथिली साहित्य के प्रसार में उल्लेखनीय योगदान है।
लगभग दो दशक हुए हैं इन प्रकाशनों को बंद हुए। दरभंगा महाराज संगीत और अन्य ललित कलाओं के बहुत बड़े संरक्षक थे। 18वीं सदी से ही दरभंगा हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत का बड़ा केंद्र बन गया था। उस्ताद बिस्मिल्ला खान, गौहर जान, पंडित रामचतुर मल्लिक, पंडित रामेश्वर पाठक और पंडित सियाराम तिवारी दरभंगा राज से जुड़े मशहूर संगीतज्ञ थे। .
उस्तादबिस्मिल्ला खान तो कई वर्षों तक दरबार में संगीतज्ञ रहे। कहते हैं कि उनका बचपन दरभंगा में ही बीता था।
गौहर जान ने साल 1887 में पहली बार दरभंगा नरेश के सामने प्रस्तुति दी थी। फिर वह दरबार से जुड़ गईं।
दरभंगा राज ने ग्वालियर के मुराद अली खान का बहुत सहयोग किया। वे अपने समय के मशहूर सरोदवादक थे। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह स्वयं एक सितारवादक थे। ध्रुपद को लेकर दरभंगा राज में नये प्रयोग हुए। ध्रुपद के क्षेत्र में दरभंगा घराना का आज अलग स्थान है।
महाराज कामेश्वर सिंह के छोटे भाई राजा विश्वेश्वर सिंह प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और गायक कुंदनलाल सहगल के मित्र थे। जब दोनों दरभंगा के बेला पैलेस में मिलते थे तो बातचीत, ग़ज़ल और ठुमरी का दौर चलता था। राज बहादुर के विवाह समारोह में कुंदनलाल सहगल आए थे और उन्होंने हारमोनियम पर गाया था – ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए।’
दरभंगा राज का अपना फनी ऑरकेस्ट्रा और पुलिस बैंड था, खेलों के क्षेत्र में दरभंगा राज का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। स्वतंत्रतापूर्व बिहार में लहेरिया सराय में दरभंगा महाराज ने पहला पोलो ग्राउंड बनवाया था। राजा विश्वेश्वर सिंह ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन के फाउंडर मेंबर्स में थे।
दरभंगा नरेशों ने कई खेलों को प्रोत्साहन दिया। शिक्षा के क्षेत्र में दरभंगा राज का योगदान अतुलनीय है। दरभंगा नरेशों ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, कलकत्ता यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, पटना यूनिवर्सिटी, कामेश्वर सिंह संस्कृत यूनिवर्सिटी, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल, ललितनारायण मिथिला यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और कई संस्थानों को काफी दान दिया।
महाराजा रामेश्वर सिंह बहादुर पंडित मदनमोहन मालवीय के बहुत बड़े समर्थक थे और उन्होंने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी को 5,000,000 रुपये कोष के लिए दिए थे। महाराजा रामेश्वर सिंह ने पटना स्थित दरभंगा हाउस (नवलखा पैलेस) पटना यूनिवर्सिटी को दे दिया था।
सन् 1920 में उन्होंने पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के लिए 500,000 रुपये देने वाले सबसे बड़े दानदाता थे। उन्होंने आनंद बाग पैलेस और उससे लगे अन्य महल कामेश्वर सिंह संस्कृत यूनिवर्सिटी को दे दिए। कलकत्ता यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी के लिए भी उन्होंने काफी धन दिया।
ललितनारायण मिथिला यूनिवर्सिटी को राज दरभंगा से 70,935 किताबें मिलीं। इसके अलावा, दरभंगा नरेशों ने स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काफी योगदान किया। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर इंडियन नेशनल कांग्रेस के फाउंडर मेंबर थे। अंग्रेजों से मित्रतापूर्ण संबंध होने के बावजूद वे कांग्रेस की काफी आर्थिक मदद करते थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी से उनके घनिष्ठ संबंध थे।
सन् 1892 में कांग्रेस इलाहाबाद में अधिवेशन करना चाहती थी, पर अंग्रेज शासकों ने किसी सार्वजनिक स्थल पर ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। यह जानकारी मिलने पर दरभंगा महाराजा ने वहां एक महल ही खरीद लिया। उसी महल के ग्राउंड पर कांग्रेस का अधिवेशन हुआ।
महाराजा ने वह किला कांग्रेस को ही दे दिया। महाराजा सर कामेश्वर सिंह ने भी राष्ट्रीय आंदोलन में काफी योगदान दिया। महात्मा गांधी उन्हें अपने पुत्र के समान मानते थे।