संस्कृति एवं विरासत- वैदिक काल में इसके बिना हवन होता था अधूरा, माना जाता था देवताओं का खास पेयसोमरस, मदिरा और सुरापान तीनों में फर्क है। ऋग्वेद में कहा गया है- ।।हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।। यानी सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।
ऋचाओं में लिखा गया है कि ‘यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्रदेव को प्राप्त हो।। (ऋग्वेद-1/5/5) …हे वायुदेव! यह निचोड़ा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध यानी दूध में मिलाकर तैयार किया गया है। आइए और इसका पान कीजिए।। (ऋग्वेद-1/23/1) ।। यहां इन सारी ही ऋचाओं में सोमरस में दूध व दही मिलाने की बात हो रही है यानी सोमरस शराब यानी मदिरा नहीं हो सकता।
मदिरा के पान के लिए मद पान शब्द का इस्तेमाल किया गया है, जबकि सोमरस के लिए सोमपान का उपयोग हुआ है। मद का अर्थ नशा या उन्माद है जबकि सोम का अर्थ शीतल अमृत होता है। इस शीतल अमृत को प्राचीन समय में हवन में आवश्यक रूप से उपयोग में लाया जाता था।
देवताओं के लिए यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका उपयोग होता था। वराहपुराण के अनुसार ब्रहमा अश्विनी कुमार जो कि सूर्य के पूत्र थे को उनकी तपस्या के फलस्वरूप सोमरस का अधिकारी होने का आशीर्वाद देते हैं यानी इसका अधिकार केवल देवताओं को था। जो भी देवत्व को प्राप्त होता था उसे भी तपस्या के बाद होम के माध्यम से सोमरस पान का अधिकार मिलता था।
मान्यता है कि सोम नाम की लताएं पहाड़ो पर पाई जाती हैं। राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के हिमाचल की पहाड़ियों, विंध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी लताओं के पाए जाने का उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर ही सोम का पौधा पाया जाता है।
यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है। अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईसा के काफी पहले ही इस पौधे की पहचान मुश्किल होती गई। ये भी कहा जाता है कि सोम (होम) अनुष्ठान करने वाले लोगों ने इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं दी, उसे अपने तक ही रखा और कालांतर में ऐसे अनुष्ठान करने वाले खत्म होते गए।
यही कारण रहा कि सोम की पहचान मुश्किल होती गई। ऋगवेद के अनुसार ।।उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज। नि धेहि गोरधि त्वचि।। (ऋग्वेद सूक्त 28 श्लोक 9) यानी मूसल से कुचली हुई सोम को बर्तन से निकालकर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और छानने के लिए पवित्र चरम पर रखें। ।।
औषधि: सोम: सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति।- निरुक्त शास्त्र (11-2-2) यानी सोम एक औषधि है जिसको कूट-पीसकर इसका रस निकालते हैं। सोम को गाय के दूध में मिलाने पर ‘गवशिरम्’दही में ‘दध्यशिरम्’बनता है। शहद या घी के साथ भी मिश्रण किया जाता था। सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है।
इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। कहा जाता है ऋषि-मुनि इन्हें अनुष्ठान में देवताओं को अर्पित करते थे और बाद में प्रसाद के रूप में खुद भी इसका सेवन करते थे। संजीवनी बूटी की तरह हैं इसके गुण। सोमरस एक ऐसा पेय है, जो संजीवनी की तरह काम करता है। यह शरीर को हमेशा जवान और ताकतवर बनाए रखता है।।।
स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्, तीव्र: किलायं रसवां उतायम। उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रम, न कश्चन सहत आहवेषु।।- ऋग्वेद (6-47-1) यानी सोम बहुत स्वादिष्ट और मीठा पेय है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है। शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है।
यदि आध्यात्मिक नजरिए से यह माना जाता है कि सोम साधना की उच्च अवस्था में इंसान के शरीर में पैदा होने वाला रस है। इसके लिए कहा गया है सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्। सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3) यानी बहुत से लोग मानते हैं कि मात्र औषधि रूप में जो लेते हैं, वही सोम है ऐसा नहीं है।
एक सोमरस हमारे भीतर भी है, जो अमृतस्वरूप परम तत्व है जिसको खाया-पिया नहीं जाता केवल ज्ञानियों द्वारा ही पाया जा सकता है।