दिवाली पर कंडिल जलाने की है प्राचीन परंपरा… पूर्वजों से जुड़ी है मान्यता

जानकारी

दीपावली यानी दीपों का त्योहार है. यह अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व होता है. इस दौरान हर घर दूधिया रोशनी से जगमगाता हुआ दिखता है. लोग दीया, झालर बल्ब और विभिन्न प्रकार के आधुनिक बल्ब से घरों को रोशन करते हैं. परंतु, इन सब से कंडिल विशेष महत्व रखता है. कंडिल घर के ऊंचे स्थान पर लगाया जाता है और इसे आकाशदीप भी कहते हैं. विशेष जानकारी के आधार पर, पंडित मनोत्पल झा बताते हैं कि कंडिल जलाने की परंपरा बहुत पुरानी है. दीपावली के दिन इसे जलाने का अलग महत्व होता है और यह कंडिल छठ के दूसरे दिन तक जलाया जाता है,

जानिए क्या है परंपरा
पंडित मनोत्पल झा द्वारा बताई गई कंडिल जलाने की परंपरा का वर्णन करते हुए कहा जा रहा है कि यह परंपरा बरसों से चली आ रही है. दिवाली पर लोग मिठाई बांटते हैं और पूजा करते हैं, और इसके बाद कंडिलें भी जलाई जाती हैं. इसे एक लंबे बांस में टांगा जाता है ताकि यह पूर्वजों की याद को संरक्षित कर सके. पंडित मनोत्पल झा भी यही सुझाव देते हैं कि इस प्रक्रिया के माध्यम से हम अपने पूर्वजों के साथ एक रूप में जुड़ सकते हैं और उनका आशीर्वाद ले सकते हैं. इसे 64 कमाची से बनाया जाता है और पहले किरासन का डिविया जलाया जाता था, लेकिन अब बल्ब का जमाना आ गया है, इसलिए बल्बों का भी उपयोग किया जा सकता है. पंडित मनोत्पल झा आपको आर्शीवाद बनाए रखने और पूर्वजों को याद करने के लिए कंडिलें जलाने की प्रेरणा देते हैं.

 

इतने दिनों के लिए घरों पर जलता है कंडिल
पंडित जी के अनुसार, कंडिल हमें यह अहसास कराती है कि हमारे पूर्वज हमारे बीच में होते हैं, और वे हमें आशीर्वाद दे रहे हैं. आज के दौर में भी कई परिवार ऐसे हैं जो इस परंपरा को महत्वपूर्ण मानते हैं और दीपावली के दिन अपने घरों में कंडिल लगाते हैं, और छठ के समापन के दिन इसे उतार लेते हैं. कंडिल को इस 7-दिन की अवधि में रोजाना जलाने की परंपरा है, लेकिन इसे 24 घंटे तक नहीं जलाना है, बल्कि इसे केवल शाम को ही जलाना है.

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