दीपावली में घरों और व्यापारिक संस्थानों में महालक्ष्मी और श्री गणेश की धूमधाम से पूजा करने का रिवाज है. जबकि इसी दिन मंदिरों में भव्य तरीके से मां काली की पूजा-अर्चना की जाती है. इस दौरान माता का खोईछा भरने के लिए श्रद्धालु महिलाओं की भीड़ उमड़ पड़ती है. इस बार सोमवार की दोपहर के बाद से बुधवार को प्रतिमा विसर्जन तक खोईछा भर सकते हैं.लेकिन क्या आप जानते हैं की मां काली को महिलाएं खोईछा क्यों भरती है. नहीं…तो चलिए आज हम आपको इसके पीछे की मान्यता बताते हैं.

बेटी को खाली हाथ नहीं करते विदा
सुपौल शहर के मलहद स्थित काली मंदिर के पंडित शंभू झा बताते हैं कि दीपावली की रात को मां काली का जन्म होता है. इस दौरान विधि विधान के साथ अनुष्ठान किया जाता है. वे बताते हैं कि पूजा के अवसर पर मान्यता है कि मां काली अपने मायके आती है. जहां उनकी धूमधाम से पूजा की जाती है. उन्होंने बताया कि मिथिला में परंपरा है की लोग विदाई से पहले बहन-बेटी को खोईछा देते हैं.
इसी परम्परा के अनुसार महिलाएं मां काली का विधिवत खोईछा भरा करती हैं. लाल रंग शुभ का प्रतीक है. इसीलिए इसी रंग के कपड़े में खोईछा भरा जाता है. इसमें धान, दूब, साबुन, हल्दी, पान, सुपारी मुख्य रूप से रखकर लाल कपड़े में बांध कर दिया जाता है.
धन, आरोग्य और सौभाग्य का प्रतीक है ये सामान
धान : बेटी का सुसराल धन-धान्य से परिपूर्ण रहेगा. इसलिए खोईछा में धान दिया जाता है.
दूब : समुद्र मंथन से अमृत निकला था. उसका एक बूंद दूब पर भी गिरा था. इस कारण दूब अमर है. अमृत के प्रतीकके रूप में दूब दिया जाता है, ताकि बेटी और उसका परिवार निरोग और दीर्घायु रहे.
साबुत हल्दी : सृष्टि के निर्माण समय पौधे के रूप में सबसे पहले हल्दी की ही उत्पत्ति हुई थी. इसमें सौंदर्य बढ़ाने की सबसे अधिक क्षमता होती है.
पान : सुगंधित होने के अलावा उसमें कई प्रकार के तत्व होते हैं, जो रूप सौंदर्य को निखारता है. इसीलिए पान दिया जाता है.
सुपारी : वेद पुराणों के अनुसार सुपारी दुनिया का सर्वोत्तम फल है. इसके अलावा खोईछा में सिंदूर, लाह की चुरी, बिंदी, मिठाई स्वरूप बताशा चढ़ाया जाता है.