पटना: आज राष्ट्रकवि दिनकर की जयंती है। दिनकर जो हिंदी साहित्य में आज भी सूर्य की तरह अपनी आभामंडल में शब्दों के माध्यम से व्याप्त हैं। दिनकर का जन्म बिहार के बेगूसराय जिला के सिमरिया गांव में हुआ था। हिंदी साहित्यकार होने के बाद भी वे अपनी मातृभाषा को लेकर काफी गंभीर थे। संभवत: यहीं कारण है कि उन्होंने एक बार सार्वजनिक मंच से कहा था कि मैं हिंदी में लेखनी अवश्य करता हूं लेकिन हिंदी मेरी मातृभाषा नहीं है। मैथिली साहित्यकारों के आग्रह पर उन्होंने वचन दिया था कि मैथिली में भी वे अपना कलम चलाएंगे। हिंदी साहित्य से आज भी दिनकर का नाम मिटा दिया जाय तो हिंदी साहित्य अपने आप में अधूरा हो जाएगा
दिनकर कें संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म निर्माता अविनाश दास कहते हैं कि- रामधारी सिंह दिनकर बड़े कवि थे। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान उनकी कविता ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ जन जन में मशहूर हुई थी। उनकी जाति को लेकर अक्सर मज़ाक़ उड़ाया जाता रहा है। हमारे प्रिय मित्र Ramagya Shashidhar दिनकर जी के गांव सिमरिया के वासी हैं। आजकल बीएचयू में प्रोफेसर हैं। जब जेएनयू में पढ़ते थे, तो पीछे पीछे मित्र-समूह कोरस गाता था – “स्वयं युगधर्म का हुंकार हूं मैं, सिमरिया घाट का भूमिहार हूं मैं!” यह दिनकर जी की एक कविता की जातिवादी पैरोडी थी। खुद शशिधर भाई इस पैरोडी के मज़े लेते थे। मूल कविता पंक्तियां कुछ इस तरह हैं…सुनूं क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा, स्वयं युगधर्म का हुंकार हूं मैं। कठिन निर्घोष हूं भीषण अशनि का, प्रलय गांडीव की टंकार हूं मैं। दबी सी आग हूं भीषण क्षुधा की, दलित का मौन हाहाकार हूं मैं। सजग संसार, तू जग को संभाले, प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूं मैं…
वहीं मोकामा के प्रिर्यदर्शन शर्मा लिखते हैं कि- दिनकर जो सूर्य के समान हो। निःसंदेह रामधारी सिंह दिनकर सूर्य के समान ही थे। जैसे सूर्य का प्रकाश और ऊष्मा संसार के सभी जीव-अजीव के लिए एक समान है वैसे दिनकर ने भी अपनी लेखनी से संसार की हर विधा को छूने का प्रयास किया और पूर्णतः सफल रहे। दिनकर जी के लेखन खंड को देखा जाए बड़ा ही अनोखा सा मिश्रण है। दिनकर के काव्य का प्रथम चरण उनकी ओजस्वी कविता का है जिसमें उनके हृदय की आग दिखाई देती है। ‘रेणुका’ कृति में उनकी भावना इसी रूप में अभिव्यक्त हुई है। उनके काव्य का दूसरा चरण गर्जना के स्वरों से भरा हुआ है तथा विरोचित भावनाओं का मुखर प्रस्फुटन हुआ है। ‘हुँकार’ कृति इसी श्रेणी में सम्मिलित की जा सकती है। दिनकर के काव्य का तृतीय चरण श्रृंगार से ओत-प्रोत है। ‘उर्वशी’ और ‘रसवन्ती’ कृतियों में श्रृंगारी और कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है। उनके काव्य के अन्तिम चरण में शौर्य, करूणा, क्षमा और श्रृंगार की मिश्रित प्रवृत्ति अभिव्यक्त हुई है जिसमें सभी यक्ष प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया है। कुरूक्षेत्र इस चरण का उदाहरण है।
इतना ही नहीं दिनकर जी ने अपने जीवन काल में यह भी प्रेरणा दी मानव को अपने राष्ट्र, अपनी भाषा, अपनी मातृभूमि, अपने कुल-वंश पर गौरव होना चाहिए। मानव में नेतृत्व क्षमता का अद्वितीय गुण होना चाहिए लेकिन उसके भीतर अहिंसक प्रवृति विद्यमान होनी चाहिए। उसे क्षमाशील होना चाहिए। कर्तव्य बोध का स्मरण रहे लेकिन निरंकुश नेतृत्व के प्रति आक्रोश भाव भी हो। एक कवि के रूप में ओज, गर्जन, श्रृंगार और क्षमा के मिश्रण की अद्भुत मिशाल हैं दिनकर जी।
वैसे मुझे दिनकर का दो स्वरूप बेहद पसंद है। जिसमें एक उर्वशी है। जहां श्रृंगार है, प्रेम है, समर्पण है और वियोग भी है। उर्वशी काव्य-नाटक को दिनकर की ‘कवि-प्रतिभा का चमत्कार’ माना गया। हिन्दी साहित्य संसार में एक ओर उसकी कटु आलोचना और दूसरी ओर मुक्तकंठ से प्रशंसा हुई। आसान नहीं होता कवि के लिए लिख देना। इसमे क्या आश्चर्य? प्रीति जब प्रथम-प्रथम जगती है, दुर्लभ स्वप्न-समान रम्य नारी नर को लगती है। सौंदर्य वर्णन का इससे सशक्त और सार्थक स्वरूप शायद ही रहा हो।
इसी प्रकार दिनकर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से बार बार बताया है कि जब कोई शौर्यवान होगा तब ही वह दूसरों के लिए न्याय की बातें कर पाएगा। क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो(कुरुक्षेत्र से) निःसंदेह जो शक्तिशाली है वहीं क्षमा दे सकता है। लेकिन ध्यान रहे चाहे जितनी शक्ति हो मैत्री भाव की जीवंत रखने का प्रयास करना चाहिए और इसी लिए दिनकर ने लिखा। मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को, भगवान हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। (रश्मिरथी से)
अर्थात् युद्ध समाधान नहीं है, वह तो विनाश ही ओर ले जाने का माध्यम है इसलिए जितना हो सके युद्ध को टालें समस्त संसार के लिए भलाई युद्ध न होने में है। हां युद्धोन्मादी शत्रु के प्रति सख्त रवैया जरुर अपनाएं रखें। जैसे मौजूदा समय में हमारे देश में ही पिछले कुछ दिनों से हर कोई युद्ध की बात कर रहा है। पाकिस्तान से युद्ध कर लें। अरे भाई महाभारत का युद्ध हुआ था और जीतने वाला भी कुल वंश सब गंवा बैठा। फिर भी युद्ध चाहते हैं हम?
खैर दिनकर जी सार्थकता युगातीत है। मेरे लिए तो सुखद संयोग यह भी है कि दिनकर का जन्म सिमरिया में हुआ और शुरुआती शिक्षा हमारे गांव मोकामा में। लेकिन दुखद पहलू है कि जिस कुल वंश में दिनकर जैसे अनमोल रत्न का जन्म हुआ वह जाति-समाज आज दिनकर को भूल कर दानवीय प्रवृतियों में लिप्त लोगों को अपना गौरव मान बैठा है। भगवान सद्बुद्धि दें, फिर से दिनकर कुल की मौजूदा और अगली पौध दिनकर बनने का प्रयास करे न कि दानव।
कुछ वर्ष पूर्व शायद 2009 में ट्रेन में सफर कर रहा था। टाटानगर से राउरकेला के बीच कहीं केला ख़रीदा। तो केलेवाले ने अख़बार के पन्नों में लपेट कर केला दिया। अख़बार का वह पेज रामधारी सिंह दिनकर के जन्मदिन पर छपा विशेष परिशिष्ट था। दिनकर से जुड़े कई संस्मरण थे। सब याद नहीं पर एक पंक्ति याद है। अपना परिचय देते हुए उन्होंने मजाकिया लहजे में कहा था। ए मनु तेरा मनुहार हूँ मैं, सिमरिया घाट का भूमिहार हूँ मैं।
Source: Live Bihar