कोई पीढ़ी एक संदेश देती है तो पीढिय़ों का मार्ग प्रशस्त होता है। फिर होती है एक तड़प खुद को बदलने की। सिर्फ एक बदलता है और कडिय़ां जुड़ते-जुड़ते समाज को बदलने लगती हैं। पर्वत पुरुष Dashrath Manjhi
दशरथ बाबा! इलाका तो अब उन्हें इसी नाम से पुकारता है। दो दशक लगे पहाड़ तोड़कर औरों के लिए रास्ता बनाने में, और उसी परिवार में मुश्किलों की चट्टानों को तोड़ते हुए पोती ने अपने जन्म के दो दशक बाद कॉलेज की राह बना ली।
Dashrath Manjhi की पोती लक्ष्मी ने इंटरमीडिएट के बाद ग्रेजुएशन में नामांकन लिया है। इस परिवार में पहली बार किसी ने स्कूल देखा, अब कॉलेज। एक महादलित परिवार के बदलने की शुरुआत की एक छोटी-सी कहानी भर है यह। सफर तो अभी मीलों का बाकी है। इस पूरे समाज का, जहां साक्षरता का प्रतिशत दो अंकों में भी न हो।
गया जिले का वजीरगंज और उसी का एक छोटा-सा गांव गेहलौर (अब मोहड़ा प्रखंड में), अब तो पूरी दुनिया जानती है। पहाड़ से टकराकर पत्नी घायल हो गई तो बाबा Dashrath Manjhi ने पहाड़ ही तोड़ दिया था। नाम पड़ गया पर्वत पुरुष। अभी 17 अगस्त को उनकी पुण्यतिथि भी है, पर इस पहाड़ को तोड़े जाने की घटना के पीछे मन के अंतर्द्वंद्व और बदलाव की छटपटाहट को पढऩे की कोशिश करें तो वे शब्द बहुत कुछ कहते नजर आएंगे।
धुन के पक्के उस शख्स को दो दशक लगे इस काम में। 60 का दशक था। इस महादलित समाज का शख्स महानायक बन चुका था, लेकिन उसी समाज में बहुत कुछ बाकी था। अशिक्षा का अंधेरा और अंधविश्वास। कुपोषण और स्वास्थ्य सुविधा से दूरी।
जब एक आम आदमी से महानायक बने तो इसकी भी लड़ाई लड़ी। उसी परिवार की तीसरी पीढ़ी में अब पहली बार कॉलेज की सीढ़ी चढ़ती एक बेटी और दामाद भी ग्रेजुएट है। ऐसा नहीं कि पढऩे की यह तड़प दूसरी पीढ़ी में नहीं थी, तब का वक्त और जागरूकता का अभाव। यह उस पीढ़ी की ही जुबानी, बाबा की बेटी लोंगी देवी कहती हैं-बड़ी मन था हमरो पढ़े के…। हमें भी पढऩे की बड़ी इच्छा थी, लेकिन क्या करते।
स्कूल जाते तो मास्टर भगा देता, लड़की है…। आज अच्छा लग रहा है, जब बच्चा सब को पढ़ते देखते हैं। पीढिय़ों की तड़प भी महसूस करें और उस तड़प से निकले बदलाव के मंजर को भी। कॉलेज जा रही लक्ष्मी आंगनबाड़ी में भी काम करती है, पंद्रह-सत्रह सौ रुपये भी मिलते है, पर परिवार के लिए नाकाफी है। सरकार ने इस इलाके के लिए काफी कुछ किया है, लेकिन इस परिवार के घर को देखें तो अभी बहुत कुछ की दरकार है।
बहरहाल, लक्ष्मी भी बाबा की तरह एक प्रतीक है अपने समाज के लिए। शायद यह लहर समाज की इस पीढ़ी समेत अगली पीढिय़ों को एक सुनहरे कल की ओर ले जाए। लक्ष्मी कहती है-बाबा ने ही पढऩे भेजा था। इसी शिक्षा से तो समाज बदलेगा और देश भी।