लोक आस्था का चार दिवसीय महापर्व छठ आज नहाए-खाए से शुरू हो चुका है. आज व्रती के घरों में कद्दू की सब्जी, चावल और दाल खाने की प्रथा है. खरना के पहले इसी दिन व्रतियों के घरों में गेहूं भी धोकर सुखाए जाते हैं. आज इस खबर में हम नहाए-खाए की नहीं, बल्कि संध्या अर्घ्य के दिन जमीन पर लोट- लोटकर (दंड प्रणाम) घाट जाने वाले लोगों के बारे में बात कर रहे हैं. पंडित शशिभूषण पांडेय बताते हैं कि इसे दंडी प्रथा, दंडी प्रणाम, दंडवत अथवा कष्टी प्रथा के नामों से भी जाना जाता है.
मन्नत पूरी होने पर कष्टी का लेते हैं संकल्प
बता दें कि जो लोग छठ पूजा से परिचित हैं, उन्होंने कई लोगों को ऐसा करते हुए जरूर देखा होगा. हालांकि, वैसे भी बड़ा ही कठिन व्रत माना जाता है. पर, पंडित शशिभूषण पांडेय बताते हैं कि छठ व्रत में जो सबसे दुष्कर और कठिनतम साधना है, वह जमीन पर लोटकर घर से छठघाट तक जाना होता है. इससे दंडी या दण्डी प्रणाम के नाम से भी जाना जाता है.
कब देते हैं दंड प्रणाम
पंडित शशिभूषण बताते हैं कि लोग दंड प्रणाम के जरिए अपना शरीर भगवान सूर्य की आराधना में समर्पित कर देते हैं. इस कठिन प्रक्रिया को महिला-पुरुष सभी अपार श्रद्धा के साथ पूरा करते हैं. पंडित जी आगे कहते हैं कि छठ व्रत के दौरान व्रती हाथ में एक लकड़ी का टुकड़ा रखते हैं, जो आम के पेड़ का टहनी होता है. स्वयं जमीन पर पूरी तरह लेटकर अपनी लंबाई के बराबर निशान जमीन पर लगाते हैं. इसके बाद वे उसी निशान पर खड़े होकर दंड प्रणाम करते हैं. यह दंड प्रणाम शाम और सूर्योदय के अर्घ्य के दौरान घर से छठ घाट तक पहुंचने के लिए व्रती द्वारा किया जाता है.
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