आप जब किसी शांत तालाब में कंकड़ फेंकते हैं तो अंदाज़ा लग जाता है कि एक छोटा सा कंकड़ भी तालाब के अंदर कितनी हलचल हलचल पैदा कर सकता है. जो लहर आपने उछाली है वो कहां तक जाती है, इस तरह के प्रयोग हमलोग सभी बचपन में कर चुके हैं. इस खेल का इस्तेमाल अन्यत्र भी दूसरे स्वरूप में किया जा सकता है. आइये इसको बिहार के संदर्भ में समझने की कोशिश करते हैं. मंगलवार के दिन शिक्षा विभाग एक फैसला लेता है, जिसमें छठ, जितिया, दुर्गापूजा, जन्माष्टमी, तीज और रक्षाबंधन जैसे अन्य पावन पर्वों की छुट्टियों को कम कर दिया जाता है.
शिक्षा विभाग का प्रयोग हिंदू पर्वों तक सीमित क्यों?
वैसे तो ये पर्व हिंदू धर्म में किसी खास वर्ग या जाति तक सीमित नहीं होते लेकिन हिंदू पर्वों की छुट्टी कम करना या/रद्द करना और फिर देखना कि इसका कितना विरोध होता है, वाकई ये एक रोचक सामाजिक प्रयोग हो सकता है. दिन भर मीडिया में बिहार के शिक्षा विभाग की छीछालेदर होती रही, विभाग के अपर मुख्य सचिव केके पाठक को ज़िम्मेवार ठहराया गया.
सोचने वाली बात है क्या एक अधिकारी इतना बड़ा फैसला खुद ले सकता है, जिसका असर एक बड़ी हिंदू आबादी पर संभावित है. ये वैसा फैसला जो करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं से जुड़ा है, ये फैसला प्रशासनिक फैसला कैसे हो सकता है? एक बार सोच भी लेते हैं कि ये फैसले अगर एक समुदाय को खुश करने के लिया गया लेकिन एक महिला अगर निर्जला व्रत पर है और आप उसे स्कूल जाने के लिए मजबूर करते हैं तो इससे भला किसी को खुशी कैसे मिल सकती है? छठ जैसे पावन पर्व में व्रती कितने अनुशासन के साथ व्रत करता है उसे बिहारियों से बेहतर कौन समझा सकता
क्या इस फैसले को टाला जा सकता था?
मुझे तो लगता है इस फैसले से अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी खुश नहीं होंगे. मेरी राजद और जदयू के जिन मुस्लिम नेताओं से बात हुई, उन्हें भी ये बात हजम नहीं हुई कि रक्षाबंधन की छुट्टी को रद्द करने से सरकार को क्या फाइदा मिलेगा? और इस फैसले की टाइमिंग भी तो देखिये! क्या इस फैसले को टाला जा सकता था? अगर ये फैसला शिक्षा के उत्थान के लिए इतना अनिवार्य था तो क्यों नहीं अन्य धर्मों के साथ भी इस तरह के प्रयोग किए गए?
पीएफआई की गतिविधियां चिंता का विषय
बीजेपी नीतीश कुमार पर हमलावर रही है और अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है. बिहार के वरिष्ठ बीजेपी नेता और सांसद सुशील मोदी कहते हैं जब चेहल्लुम और मोहम्मद साहब के जन्मदिन की छुट्टियां बरकरार रखी गईं तो कृष्ण जन्माष्टमी की छुट्टी क्यों समाप्त की गई? बिहार में पीएफआई की गतिविधियां उत्तरोत्तर बढ़ी ही हैं, घटी नहीं हैं. पटना के पास फुलवारी शरीफ में एनआईए आकर दबिश करती है लेकिन बिहार पुलिस को कानों- कान खबर नहीं लगती जब तक उसे बताया नहीं जाता. राज्य में जितने बम ब्लास्ट हुए उसके नेटवर्क का खुलासा कभी नहीं हुआ. राज्य की पुलिस कहती रही है कि ये सामान्य ब्लास्ट ही हैं.
बिहार सरकार आरटीई एक्ट का हवाला देकर 220 दिन की पढ़ाई करवाने का तर्क दे रही है, लेकिन वहीं शिक्षकों से दर्जनों तरह के शिक्षकेतर काम लिए जाते हैं, उन्हें तो जूट का बैग बेचने के लिए भी मजबूर किया जाता है, इसका क्या जवाब किसी के पास नहीं है. बच्चे अपनी संस्कृति और लोक पर्वों से दूर हो रहे हैं, नई पीढ़ी को उनके जड़ों से काटकर हम क्या हासिल करेंगे? शिक्षा विभाग का फैसला देखने में तो एक तर्कहीन प्रशासनिक प्रयोग लगता है लेकिन इसकी क्या गारंटी कि भविष्य में ऐसे प्रयोग अन्य विभागों में नहीं किए जाएंगे?