रक्षाबंधन भाई-बहन के अटूट प्रेम का पर्व है। इसकी अहमियत ऐसी है कि अगर कोई बहन दुश्मन को भी भाई मानकर कच्चे धागे भेज दे, तो वह मजहब की दीवार को भूल उसकी सलामती के लिए दौड़ पड़ता है।
चित्तौड़ के राणा सांगा की विधवा रानी कर्मावती और मुगल बादशाह हुमायूं की कहानी इसका जीता-जागता उदाहरण है जब गुजरात के सुलतान बहादुर शाह द्वारा चित्तौड़ पर किए गए हमले का सामना करने में असमर्थ रानी कर्मावती ने हुमायूं को राखी भेजकर अपनी रक्षा की गुहार लगाई थी।
ये कहानी 280 साल पुरानी
आज से करीब 280 साल पहले भागलपुर की सरजमी पर भी एक ऐसी ही घटना घटी थी जब यहां की एक मुसलमान वीरांगना ने बंगाल अभियान पर जा रहे मराठा योद्धा को राखी भिजवाई थी।
यह मुसलमान वीरांगना थीं, बंगाल (जिसमें बंगाल के साथ बिहार और ओडिशा भी शामिल थे) के नवाब सरफराज खां (1700-1740) के सेनापति गौस खां की विधवा लाल बीबी और मराठा योद्धा पेशवा बालाजी राव।
साहसी औरत थी गौस खां की बीवी
भागलपुर के जीरो माइल के पास गौसपुर (गौस खां के नाम पर) में लाल बीबी और उसके शौहर गौस खां और बेटों के मजार आज भी इस पुरानी दास्तान की याद दिलाते हैं।
इतिहासकार शाह मंजर हुसैन की किताब ‘एमीनेंट मुस्लिम्स ऑफ भागलपुर’ में इस बात का जिक्र है कि सेनापति गौस खां की विधवा लाल बीबी भागलपुर के हुसैनाबाद इलाके के बबरगंज-कुतुबगंज मोहल्ले में रहती थी।
बबरगंज-कुतुबगंज मोहल्ले का नाम लाल बीबी के दो जांबाज बेटों बबर और कुतुब के नाम पर है। लाल बीबी अपने पति गौस खां की तरह एक साहसी, स्वाभिमानी और बुलंद इरादों वाली औरत थी।
1740 में सेनापती गौस खां की हुई मौत
गौस खां की मौत मुर्शिदाबाद (पश्चिम बंगाल) के निकट गिरिया की लड़ाई में सन 1740 को हुई थी, जब बिहार के सूबेदार अलीवर्दी खां ने षडयंत्र करके नवाब सरफराज खां की हत्या कर बंगाल के तख्त पर कब्जा कर लिया था।
इस लड़ाई में गौस खां के साथ उनके दोनों जाबांज बेटे बबर और कुतुब भी बहादुरी से मुकाबला करते हुए शहीद हुए थे।
1743 में बंगाल कूच की रघुजी भोंसले की सेना
मशहूर इतिहासकार जदुनाथ सरकार अपनी किताब ‘बिहार एंड ओरिसा (ओडिशा) ड्यूरिंग द फॉल ऑफ मुगल एम्पायर: विथ डिटेल्ड स्टडीज ऑफ मराठा इन बंगाल एंड ओडिशा’ में बताते हैं कि रघुजी भोंसले के प्रथम मराठा आक्रमण के दौरान हुई बर्बादी के बावजूद बंगाल के नवाब अलीवर्दी खां ने इस पर काबू पा लिया था।
हालांकि, अगले ही साल सन 1743 में पेशवा भास्कर के बुलावे पर खुद रघुजी भोंसले एक बड़ी सेना के साथ बंगाल की ओर बढ़ चले।
सैनिकों संग बिहार की ओर बढ़े पेशवा बालाजी
इस हमले को विफल करने की मंशा से बादशाह के पेशकश पर मराठों के आपसी रंजिश के कारण बालाजी ने इस मुहिम के लिये हामी भर दी और तकरीबन 50 हजार फौजियों की शक्तिशाली सेना के साथ बिहार की ओर कूच कर गए।
सन 1743 के फरवरी महीने के शुरुआती दिनों में पेशवा बालाजी राव ने अपने सैनिकों के साथ दक्षिण की ओर से बिहार में प्रवेश किया।
पेशवा बालाजी राव के भागलपुर पहुंचने के बारे में इतिहासकार जदुनाथ सरकार बताते हैं कि बंगाल की ओर तेजी से कूच करने की मंशा से पेशवा बालाजी राव बनारस से बिहार के दाऊदनगर, टिकारी, गया, मानपुर, बिहार (बिहार शरीफ) और मुंगिर (वर्तमान मुंगेर) होता हुए भागलपुर पहुंचा था।
पेशवा की सेना ने बिहार में भारी तबाही मचाई
यह भी बताते हैं कि बालाजी के घुड़सवार सैनिक, जो ‘बरगी’ कहलाते थे, रास्ते में पड़नेवाले शहरों में भारी तबाही और लूटपाट मचाते हुए चल रहे थे। बिहार के अन्य शहरों के मुकाबले में मुंगेर के साथ भागलपुर में भारी तबाही मचाई और भारी क्षति पहुंचाई थी।
ऐसी भयानक स्थिति में जब मराठों के खौफ़ से बिहार का सूबेदार पटना से लापता हो गया था, एक विधवा महिला होने के बावजूद लाल बीबी ने भागलपुर में बालाजी के सैनिकों के खिलाफ न सिर्फ मोर्चा संभाला, बल्कि पेशवा को अपनी बहादुरी के कायल भी कर दिया।
बंगाल के इतिहास से संबंधित किताब ‘सियर-उल-मुताखरीन’ बताता है कि पेशवा बालाजी राव के भागलपुर पहुंचने की खबर सुनकर यहां के लोग डर से शहर छोड़कर भाग निकले।