बाबाधाम दूर है…जाना जरूर है। सावन के महीने में प्रत्येक शिवभक्त की यही कामना होती है कि एक बार बाबा बैद्यनाथ का दर्शन जरूर कर लें।
आंकड़ें बता रहे हैं कि सावन के महीने में देवघर में शिवभक्तों की संख्या में इजाफा ही होता जा रहा है। इस बीच सोशल मीडिया पर बड़ी तेजी के साथ एक तस्वीर वायरल हो रही है जिसको ड्रोन कैमरे की मदद से खींचा गया है। इस तस्वीर की खासियत ये है कि बाबा बैद्यनाथ मंदिर परिसर के सभी मंदिर एक साथ नजर आ रहे हैं। लेकिन अब हम आपको करीब 68 साल पीछे ले जाना चाहते हैं।

68 साल पहले बाबा बैद्यनाथ मंदिर का स्वरूप कैसा दिखता था इस तस्वीर को भी आप देख सकते हैं। बाबा बैद्यनाथ मंदिर की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर जो आप देख रहे हैं वह साल 1949 की है। मैथिली ऑनलाइन पेपर इ-समाद की ओर से जारी इस ब्लैक एंड ह्वाईट फोटो में बाबा मंदिर बिलकुल हटकर नजर आ रहा है। इस फोटो के अनुसार बाबा मंदिर और पार्वती मंदिर पर भक्तों की ओर से लगाई जाने वाली लाल धागा नहीं है।

भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं बाबाधाम अर्थात देवघर स्थित रावणेश्वर महादेव ज्योर्तिलिंग। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक यह वहीं शिवलिंग है जिसे लंकेश्वर रावण लंका ले जाने के लिए कैलाश से लाया था। सालो भर शिव भक्त इस मंदिर में देवादिदेव का दर्शन और पूजा अर्चना करते हैं। वरिष्ठ पत्रकार आशीष झा के मुताबिक वर्तमान के झारखंड और पूर्व के बिहार में स्थित बाबा बैद्यनाथधाम मंदिर का इतिहास बिहार के दरभंगा राज परिवार से संबंधित है। आशीष झा ने दावा किया है कि साक्ष्य के मुताबिक यह मंदिर महाराज कामेश्वर सिंह धार्मिक न्यास के अंतर्गत निबंधित मंदिरों में से एक है। वर्तमान समय में इसकी देख रेख झारखंड सरकार की ओर से की जा रही है।

वहीं पत्रकार कुमुद सिंह कहती हैं कि बात उस जमाने की है जब दलितों को मंदिर में प्रवेश नहीं था। श्रीकृष्ण सिंह ने दरभंगा महाराज से मंदिर में दलितों के प्रवेश को लेकर चल रहे आंदोलन को समर्थन देने का आग्रह किया। कामेश्वर सिंह ने कहा कि दलितों को समान दर्जा देने की हमारी कुलनीति रही है। जैसा कि आप जानते हैं कि हमारे पिता महाराजा रमेश्वर सिंह ने इलाहाबाद कुंभ में दलितों को स्नान का अधिकार दे चुके हैं, हम चाहेंगे कि दलितों को शिवालय में प्रवेश का अधिकार मिले। श्रीकृष्ण सिंह ने कहा कि सरदार पंडा विरोध कर रहे हैं। महाराजा ने कहा कि मैं उनसे बात करता हूं, वो मंदिर के स्वामी हैं, लेकिन मंदिर के दरबाजे पर दरभंगा लिखा है और दरभंगा का दरबाजा किसी के लिए बंद नहीं होता…वो दलितों के लिए खुल जायेगा। मंदिर में लगे चांदी के दरबाजे पर लिखे वाक्य आज भी इसके गवाह हैं।

मंदिर को दलितों के लिए खोलना आसान नहीं था। 1934 में गांधी के विरोध से लेकर 1953 में बिनोबा भावे की पिटाई तक का इतिहास बताता है कि यह समझौता कितना कठिन था। क्यों कि वहां पंडा संस्कृति थी और सरदार पंडा ही मंदिर का स्वामी होता था। सरदार पंडा अपने इकलौते पुत्र विनोदानंद के भविष्य को सुरक्षित करना चाहते थे। महाराजा ने उनके राजनीतिक संरक्षण का वायदा किया। विनोदानंद झा को कांग्रेस की सदस्यता दिलायी गयी। संविधानसभा का सदस्यो बनाया गया। 1949 में इस मंदिर को महाराजा कामेश्वर सिंह धार्मिक न्यास के तहत निबंधित किया गया था। इसके बाद भी सरदार पंडा राजी नहीं हुए। अंतत: बिनोदानंद को श्रीबाबू का उत्तराधिकारी बनाने पर समझौता हुआ…।
श्रीबाबू और दरभंगा महाराज के निरंतर प्रयास से ही यह सब सभव हो सका। गौरतलब है कि श्रीबाबू के उत्तराधिकारी बनाने की बात जब आयी तो बिनोदानंद झा का नाम सबसे ऊपर रखा गया…यह सब अचानक नहीं हुआ… बहुत सारी बातें हैं।
श्रीबाबू और दरभंगा महाराज के निरंतर प्रयास से ही यह सब सभव हो सका। गौरतलब है कि श्रीबाबू के उत्तराधिकारी बनाने की बात जब आयी तो बिनोदानंद झा का नाम सबसे ऊपर रखा गया…यह सब अचानक नहीं हुआ… बहुत सारी बातें हैं।