बिहार में बाढ़ समस्या का समाधान रिलीफ बांटने से नहीं होगा। आजादी के बाद बिहार में पिछले 69 साल से बाढ़ आ रही है। हर साल बाढ़ आती है। घर उजड़ते हैं। जान-माल की हानि होती है। राहत शिविर खुलते हैं। सरकार खिचड़ी, चूड़ा, गुड़, सत्तू, मोमबत्ती बांट कर जवाबदेही से मुक्त हो जाती है। बाढ़ नियंत्रण की जगह बाढ़ प्रबंधन की बात होती रही है लेकिन कभी इस पर अमल नहीं किया गया। क्या बाढ़ के तांडव को कम नहीं किया जा सकता ?
IIT खड़गपुर में पढ़े और बाढ़ मामलों के विशेषज्ञ दिनेश मिश्र ने इस समस्या का गहन अध्ययन किया है। उन्होंने बिहार में बाढ़ की समस्या पर नेताओं और अफसरों के रवैये पर बहुत प्रमाणिकता के साथ लिखा है।
आजादी के बाद बिहार में सबसे पहले 1948 में बाढ़ आयी थी। उस समय बाढ़ की समस्या पर बिहार विधानसभा में चर्चा रही थी। 1948 में बिहार के सिंचाई मंत्री थे दीपनारायण सिंह थे। सदन में दिया गया उनका बयान काफी चौंकाने वाला था। वे छपरा ( तब वैशाली, सीवान और सारण संयुक्त रूप से एक ही जिला थे।) जिले में आयी बाढ़ के सवाल पर सरकार का पक्ष रख रहे थे।
सिंचाई मंत्री दीप नारायण सिंह ने सदन में बयान दिया था कि अफसरों को इस बात का पता ही नहीं चल पाया कि छपरा जिले के गंगा घाट पर नावों की कमी है। उन्हें यह भी पता नहीं था कि महनार घाट पर व्यापारियों के कई नावें लगी हुई थीं। अगर उन्हें इस बात का पता होता तो इन नावों के जरिये कई लोगों की जान बचा सकते थे।
कांग्रेस के एक अन्य मंत्री के बी सहाय ने कहा था कि सरकार नदियों के किनारे तटबंध बनाने के पक्ष में नहीं है। अगर छपरा में तटबंध बनाया गया तो उसका पटना पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अध्ययन करने के बाद ही सरकार कोई फैसला लेगी।
सरकार के इस जवाब से विपक्ष नाराज हो गया। प्रभुनाथ सिंह (1948 के पुराने नेता) ने श्रीकृष्ण सिंह की सरकार पर नाकामी का आरोप लगाते हुए कहा था कि बाढ़ की समस्या का समाधान रिलीफ बांटने से नहीं होगा। इसके लिए ठोस और कारगर उपाय करने होंगे। भारत के चर्चित साहित्यकार और प्रसोपा के विधायक रामवृक्ष बेनीपुरी ने 1956 में बिहार विधानसभा में बाढ़ की तबाही पर सरकार तीखे हमले किये थे।
उन्होंने कहा था कि सरकार रिलीफ बांट कर परेशान लोगों के आत्मसम्मान पर चोट पहुंचा रही है। जो उनका अधिकार उसे एहसान के रूप में दिया जा रहा है। रिलीफ बांट कर सरकार लोगों को भिखमंगा बना रही है।
69 साल हो गये। बिहार में बाढ़ और राहत की तस्वीर नहीं बदली है। सड़क के किनारे शरण लिये हुए लोग लाइन में बैठ कर सरकारी खिचड़ी का इंतजार कर रहे हैं। कोई दो दिन से भूखा है तो कोई तीन दिन से भूखा है। लोगों की लाचारी और बेबसी जस की तस है। बाढ़ रोकने के नाम पर सरकार ने अब तक तटबंध बनाने के सिवा किया क्या है।
आज वही तटबंध तबाही का दूसरा नाम बन गये हैं। कामचोर और भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी तटबंध को सुरक्षित नहीं रख पाते। जैसे तटबंध टूटता है वैसे ही शुरू हो जाती है भयंकर विनाशलीला।
अब तक बिहार में सभी दलों ने शासन कर लिया है। किसी को लोगों की जान की परवाह नहीं है। करोडों रुपये खर्च करने के बाद भी तबाही जारी है।