समुद्र मंथन का साक्षी है मंदार पर्वत, यहीं गुफाओं में हुई थी रचना, कभी कैलाश भी मंदार पर्वत का हिस्सा था

आस्था इतिहास

मंदार का मतलब ही स्वर्ग होता है. ऐसी मान्यता है कि मंदार पृथ्वी पर का स्वर्ग है और सृष्टि के आदि काल से ही मौन, दृढ़वत खड़ा है. उसी मंदार पर कैलाश सहित सप्तपुड़िया थी. उस समय मंदार वर्फीली उंची चट्टानों से आच्छादित था. इसी को मध्य मेरु कहा गया, जो बाद में सुमेरु बना.

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन में देवताओं ने मंदार पर्वत को मथानी बनाया था। सदियों से खड़ा मंदार आज भी लोगों की आस्था का पर्वत है। इसे मंदराचल या मंदर पर्वत भी कहते हैं।
बौंसी भागलपुर से दक्षिण में रेल और सड़क मार्ग पर स्थित बिहार राज्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह अनेक दंत कथाओं को समेटे बौंसी से करीब दो किलोमीटर उत्तर में स्थित है।
लोक मान्यता है कि भगवान विष्णु सदैव मंदार पर्वत पर निवास करते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह वही पर्वत है, जिसकी मथानी बनाकर कभी देव और दानवों ने समुद्र मंथन किया था। मकर-संक्रांति के अवसर पर यहां एक मेला भी लगता है जो करीब पंद्रह दिन तक चलता है। मंदार पर्वत से लोगों की आस्थाएं कई रूप से जुड़ी हैं।

हिंदुओं के लिए यह पर्वत भगवान विष्णु का पवित्र आश्रय स्थल है तो जैन धर्म को मानने वाले लोग प्रसिद्ध तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य से इसे जुड़ा मानते हैं। वहीं आदिवासियों के लिए भी मंदार पर्वत पर लगनेवाला मेला कई उम्मीद लेकर आता है। सोनपुर मेले की समाप्ति के बाद से ही लोग मंदार पर्वत के पास लगने वाले मेले का इंतजार करते हैं। सोनपुर मेले के बाद मकर संक्रांति के अवसर पर लगने वाला बौंसी का दूसरा बड़ा मेला माना जाता है।

बौंसी भागलपुर से दक्षिण में रेल और सड़क मार्ग पर स्थित बिहार राज्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस मेले का इतिहास काफी पुराना है इसमें आदिवासी और गैर-आदिवासी बड़े पैमाने पर मिलजुल कर मेले का आनंद लेते हैं। मेले का मुख्य आकर्षण काले ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित सात सौ फीट ऊंचा मंदार पर्वत है। यह अनेक दंत कथाओं को समेटे बौंसी से करीब दो किलोमीटर उत्तर में स्थित है।

वह हिमालय के मध्य अवस्थित था और यह हिमालय राजमहल के पूर्वी पहाड़ से लेकर पश्चिम संवेद शिखर तक का मूल भाग रहा है, जो अरबों वर्ष पुराना है.

अंगजनपद के सुप्रसिद्ध शोध लेखक परशुराम ठाकुर ब्रम्हवादी ने अपने पुस्तकों में इसका जिक्र किया है. इनके अनुसार वेदों की निर्माण स्थली मंदार ही है. मंदार के शोध लेखक मनोज कुमार मिश्र ने बताया कि पुराण साबित करता है कि मंदार से 12 बार समुंद्र मंथन हुआ है.

योग वशिष्ठ में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रत्येक कल्प में समुंद्र मंथन हुआ है और इसी मंदराचल पर्वत से 12 बार समुंद्र मंथन किया जा चुका है. यह सर्वविदित है कि एक कल्प में 4 अरब 32 करोड़ मानव वर्ष होते हैं. इस तरह 12 कल्प में 48 अरब वर्ष से अधिक मंदार की उम्र ठहरती है. माना जाता है कि सभी पर्वतों से प्राचीणतम पर्वत मंदार ही है.
ऐसी मान्यता है कि शिव और पार्वती के विवाह से पूर्व हिमालचल की सभा में बुलायी गयी सभी पर्वतों के मध्य मंदार को ही सभापति बनाया गया था. क्योंकि उस वक्त शिव की स्थली मंदार थी. महाभारत सहित अनेक पुराणों में कहा गया है कि मंदार के एक भाग का नाम कैलाश है जो आज का कैलाश घाटी जिलेबियामोड़ पहाड़ तथा हनुमना डैम के बीच है.

वहीं पांडवों की के यात्रा वक्त लोमस ऋषि ने मंदराचल पर्वत का जिक्र किया था. जिसमें बताया गया था कि यहां पर मणिभद्र नामक यक्ष और यक्षराज कुबेर रहते हैं. इस पर्वत पर 88 हजार गंधर्व और किन्नर तथा उनके चौगुने यक्ष अनेकों प्रकार के शस्त्र धारण किये यक्ष राज मणिभद्र की सेवा में उपस्थित रहते हैं.

जिससे स्पष्ट होता है कि सृष्टि के आदि काल का कैलाश हिमालय मेरु, सुमेरु एवं मंदार बौंसी ही है. मंदार में ही व्यास गुफा में वेदों को लिपीवद्ध किये गये थे. वेदों की उत्पत्ति ही इसी मंदराचल पर्वत पर हुई थी. आदि काल से लेकर महाभारत काल तक के व्यास द्वारा समय – समय पर मंदार की गुफा में ही वेदों को लिखा गया था.

इसके कई साक्ष्य मंदार में व्यास गुफा, सुकदेव गुफा, गणेश गुफा आदि अभी भी मौजूद हैं. साथ ही वेदों के जितने ऋषि देवी देवता हैं उन सभी का वासस्थान मंदार की उपत्थ्यकाओं में देखने को मिलता है. इतना ही नहीं गंगा, यमुना और सरस्वती नदी का प्रादुर्भाव भी यहीं से आदि काल में हुआ है. जिसके कई साक्ष्य शोध लेखकों के पास आज भी मौजूद हैं.

समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से कई महत्वपूर्ण वस्तुएं बाहर निकली थी। देवताओं तथा राक्षसों ने समुद्र मंथन के लिए शेषनाग और एक पहाड़ का सहारा लिया था। जिस पहाड़ की सहायता से समुद्र मंथन किया गया था। वहां आज भी समुद्र मंथन के निशान देखे जा सकते हैं।

यह पर्वत मंदार के नाम से जाना जाता है और यह बिहार के बांका जिले में स्थित है। आइए जानते हैं इस पर्वत से जुड़ी कुछ रोचक बातें।

मन्दार पर्वत का उल्लेख पुराण और महाभारत में भी मिलता है।मंदार पर्वत को इस नाम के अलावा मंदराचल पर्वत के नाम से भी उल्लेखित किया गया है।

मंदार पर्वत को शेषनाग के साथ लपेटा गया था ताकि समुद्र मंथन किया जा सके। समुद्र मंथन के दौरान अमृत और विष के अलावा दूसरी कई वस्तुएं प्राप्त हुई थी।

भगवान विष्णु ने मधुकैटव नाम के एक खतरनाक राक्षस को मारकर मंदार पर्वत के नीचे दबा दिया था ताकि वह बाद में लोगों को परेशान न करे।

पर्वत पर रस्सी के ऐसे निशान दिखाई देते हैं जो गवाही देते हैं कि मंदार पर्वत को ही समुद्र मंथन में मथनी के रूप में प्रयोग किया गया था। यहां समुद्र मंथन को दर्शाती एक मूर्ति भी है।

मंदार पर्वत के पास एक पापहरणी नाम का तालाब है। एक पौराणिक कथा के अनुसार मकर सक्रांति के दिन एक चौल वंशीय राजा ने इस तालाब में स्नान किया था। यहां स्नान करने से उनका कुष्ठ रोग दूर हो गया था। इसलिए इसका नाम पाप हरणी तालाब पड़ गया। इस तालाब को ‘मनोहर कुंड के नाम से जाना जाता है।

 

 

पापहरणी तालाब के बीचों बीच लक्ष्मी-विष्णु मंदिर भी स्थित है। जहां मकर सक्रांति के उपलक्ष्य पर मेला भी लगता है।

राक्षस मधुकैटव ने भगवान विष्णु से वचन लिया था कि वे हर वर्ष उसे दर्शन देने के लिए मंदार पर्वत आयेंगे। इसलिए भगवान विष्णु की प्रतिमा को हर वर्ष मंदार पर्वत तक यात्रा करवाई जाती है।

पर्व
मकर संक्रांति के दिन मंदार पर्वत की तलहट्टी में उपस्थित पापहरणि तालाब का महत्व तो कुछ और है। लोकमान्यता है कि इस तालाब में स्नान करने से कुष्ठ रोग से मुक्ति मिलती है। लोग मकर संक्रांति के दिन अवश्य यहां स्नान करते हैं। जगह-जगह जल रही आग का लुत्फ उठाते हैं। उसके बाद भगवान मधुसूदन की पूजा अर्चना करते हैं। दही-चूड़ा और तिल के लड्डू विशेष रूप से खाए जाते हैं।

इतिहास और पर्यटन
पुरातत्ववेत्ताओं के मुताबिक मंदार पर्वत की अधिकांश मूर्तियां उत्तर गुप्त काल की हैं। उत्तर गुप्त काल में मूर्तिकला की काफी सन्नति हुई थी। मंदार के सर्वोच्च शिखर पर एक मंदिर है, जिसमें एक प्रस्तर पर पद चिह्न अंकित है। बताया जाता है कि ये पद चिह्न भगवान विष्णु के हैं। पर जैन धर्मावलंबी इसे प्रसिद्ध तीर्थंकर भगवान वासुपूज्य के चरण चिह्न बतलाते हैं और पूरे विश्वास और आस्था के साथ दूर-दूर से इनके दर्शन करने आते हैं। एक ही पदचिह्न को दो संप्रदाय के लोग अलग-अलग रूप में मानते हैं लेकिन विवाद कभी नहीं होता है।

इस प्रकार यह दो संप्रदाय का संगम भी कहा जा सकता है। इसके अलावा पूरे पर्वत पर यत्र-तत्र अनेक सुंदर मूर्तियां हैं, जिनमें शिव, सिंह वाहिनी दुर्गा, महाकाली, नरसिंह आदि की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। चतुर्भुज विष्णु और भैरव की प्रतिमा अभी भागलपुर संग्रहालय में रखी हुई हैं। फ्रांसिस बुकानन, मार्टिन हंटर और ग्लोब जैसे पाश्चात्य विद्वानों की मूर्तियों भी हैं। पर्वत परिभ्रमण के बाद लोग बौंसी मेला की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। बौंसी स्थित भगवान मधुसूदन के मंदिर में साल भर श्रद्धालु भक्तों का तांता लगा रहता है। मकर संक्रांति के दिन यहां से आकर्षक शोभायात्रा निकलती है।

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