बिहार! एक ऐसा राज्य जो अपनी ऐतिहासिक गौरवगाथा के साथ साथ सरकारी शिक्षा तंत्र के बदहाली केलिए भी जाना जाता है। प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा, सब के हालात दयनीय। माने न माने पर यह एक हकीकत है जिससे न मानने वाले भी अंदर ही अंदर सहमत होते हैं।
कोशिश में लगी रहती हूँ की कम से कम पंचायत की मुखिया हूँ तो अपने पंचायत में शिक्षा की तस्वीर बदले पर बदलना तो दूर, तस्वीर बनती तक नहीं दिख रही। अपने पंचायत में जब विद्यालय नहीं मिला (विद्यालय हकीकत में तो खाना खाने का मेस बन गया है) तब थक कर ढूंढने निकली की कहीं तो कोई शिक्षक या विद्यालय होगा जहाँ हकीकत में बच्चों को “विद्यालय” और “शिक्षक” जैसे महान शब्द का मतलब का एहसास होता होगा।
तो इस तलाश में मुलाक़ात हुई सोनबरसा के एक पत्रकार बीरेंद्र जी से जो जब मिलते थे तब यही कहते थे की इंदरवा स्कुल देखने कब चलिएगा? इस प्रश्न में उनकी उत्सुकता देखने योग्य रहती थी जैसे वो कुछ बड़ा ही अद्भुत चीज़ दिखाना चाहते हों। 4 से 5 बार उन्होंने कहा पर किसी न किसी कारण से नहीं ही जा पाई।
पर आखिरकार एक दिन प्रखंड कार्यालय गई तो अचानक बीरेंद्र जी से मुलाक़ात हुई। उन्होनें फिर वही बात की और इतना कहना की प्रोग्राम बन गया हम सभी का की चलिये आज तो जाना ही है। चलते चलते कई गाँव पार करते भारत के अंतिम छोड़ पर जा पहुँचे हम लोग ।
गाँव था इंदरवा – नरकटिया, ग्राम पंचायत राज इंदरवा, जिससे सटे ही है भारत नेपाल सीमा। विद्यालय का माहौल ऐसा था कि बाहर से ही बदलाव की एक लहर का एहसास होने लगा था। अंदर गई तो बेहद ही विनम्र प्रवृति के शिक्षक मेरे आदर्श श्री भिखारी महतो जी अपनी मुस्कान के साथ स्वागत केलिए खरे थे।
बच्चों के चप्पल बिलकुल ही कतार में कक्षा के बाहर रखे हुए थे। भिखारी जी, वहां के पूर्व मुखिया श्री सुरेंद्र कुमार जी, बीरेंद्र जी और उनके अन्य सहयोगियों ने पूरे विद्यालय का कोना कोना दिखाना शुरू किया, बच्चों से मिलवाया। विद्यालय के पूरे परिसर में धूल का एक कण न मिला और शौचालय में इतनी साफ़ सफाई की हम लोग खाली पैर वहां गए ।