मैं उस उम्र में हूं जिसमें एक औरत को दर्द सहने की क्षमता आ जाती है. जिस उम्र में उसे ये मालूम होता है कि अगर चीखकर रोना है तो मुंह में कपड़ा ठूंसकर रोना बेहतर होगा वरना लोग जाग जाएंगे.
फिर भी एक दिन खाना बनाते हुए गर्म तवा छू जाता है और मुंह से जोर की चीख निकलती है. ऊपरी खाल पर एक हल्का भूरा दाग पड़ जाता है जो शायद 3 दिनों में चला जाएगा. लेकिन वो दर्द भी ऐसा होता है कि जली हुई खाल पर कुछ छू जाए, तो जोर से लगता है.
आप भी कभी जले होंगे. तवे से, रोटी की भाप से, मोमबत्ती से, सिगरेट के लाइटर से. वो एक सेकंड का दर्द याद करिए और उसे हजार गुना कर लीजिए. शायद पूरे शरीर पर तेज़ाब डालने पर हजार गुना लगता होगा. शायद उससे भी ज्यादा. मेरी कल्पना वहां तक जा नहीं पाती.
12 साल की नैंसी झा को तेज़ाब से जलाया गया. लेकिन उसके पहले उसका गला रेता गया, कलाइयों की नस काटी गई. उस बच्ची पर क्या बीती, मेरी कल्पना के परे है. उसके मां-बाप इस वक़्त किस हाल में हैं, ये सोचना नामुमकिन है.
मुझे मां की शक्ल याद आती है जिसका कलेजा मेरे शरीर पर एक खरोंच लगने भर से मुंह को आ जाता था. इस बच्ची की तस्वीर देखकर रीढ़ की हड्डी में सिहरन होती है. लगता है कलेजे के बीचोंबीच किसी नरभक्षी ने अपने दांत गड़ा दिए हैं.
ये कल्पना मात्र है. उस बच्ची के ऊपर असल नरभक्षी चढ़े हुए थे. गोश्त के जैसे उसका सेवन किया है. मधुबनी बिहार का एक शहर है. छोटा नहीं, मगर बड़ा भी नहीं. बस उतना ही बड़ा है कि कुछ सुंदर चित्रकारियों और अपनी लड़कियों से सपनों को पाल सके. नैंसी जैसी लड़कियों के सपने, उसकी बुआ जैसी लड़कियों के सपने.